उपन्यास >> सुमति सुमतिगुरुदत्त
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बुद्धि ऐसा यंत्र है जो मनुष्य को उन समस्याओं को सुलझाने के लिए मिला है, जिनमें प्रमाण और अनुभव नहीं होता।
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लक्ष्मण सेठ कई दिन तक दिल्ली में रहा। यों तो वह कश्मीरीलाल की कोठी में रहता था, परन्तु अपने काम से वह बाहर आता-जाता रहता था। रात को वह भोजन के समय प्रायः कोठी में आ जाया करता था। उस समय निष्ठा भी वहाँ होती थी। सुदर्शन ने कई बार यत्न किया कि निष्ठा और लक्ष्मण में बातचीत करा दे, परन्तु निष्ठा सदा एक-आध शब्द में उत्तर देकर बात समाप्त कर दिया करती थी।
एक दिन लक्ष्मणजी ने रात खाने की मेज़ पर बैठते ही यह घोषणा कर दी, ‘‘मेरा काम दिल्ली में समाप्त हो गया है। परसों जाने का विचार है।’’ सबने बम्बई और अहमदाबाद आने पर उनसे मिलने की बात की। निष्ठा के पिता ने कहा, ‘‘देखो, बेटा! जब कभी दिल्ली आओ, तो यही ठहरा करो।’’
‘‘मेरी समझ में यह बात तो आ गई है कि माताजी और भाभी की सेवा होटल में प्रात्त नहीं हो सकती, परन्तु यहाँ एक प्राणी है जिसे मेरा यहाँ आना सुखकारक प्रतीत नहीं होता। वे हैं निष्ठजी। पिछले दस दिन में इनके मुख पर एक समान नीरसता ही दिखाई दी है। यदि निष्ठाजी निमन्त्रण दें, तब ही यहाँ आने में रुचि हो सकती है।’’
इस प्रकार स्पष्ट पूछे जाने पर निष्ठा ने कह दिया, ‘‘देखिए भाई साहब! यह घर मेरा नहीं है। इस कारण मैं किसी को यहाँ आने अथवा यहाँ से चले जाने के लिए कहने का अधिकार नहीं रखती। मैं इतना कह सकती हूँ कि आपके यहाँ आने से मुझे किंचित्मात्र भी कष्ट नहीं हुआ।’’
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