उपन्यास >> सुमति सुमतिगुरुदत्त
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बुद्धि ऐसा यंत्र है जो मनुष्य को उन समस्याओं को सुलझाने के लिए मिला है, जिनमें प्रमाण और अनुभव नहीं होता।
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इस घटना को बीते एक वर्ष से अधिक हो गया था। इस अवधि में कई स्थानों से निष्ठा के विवाह के लिए प्रस्ताव आए किन्तु कहीं भी बात चल नहीं सकी। अधिकांश सम्बन्धों को निष्ठा अस्वीकार कर देती थी। इन सब अवसरों पर सुमति अन्यमनस्क भाव से अपनी सास की सहायता करती थी। प्रत्येक बार निष्ठा के अस्वीकार करने पर सुमति उससे कहती थी, ‘‘निष्ठा! मार्ग की कठिनाई देख लो।’’
‘‘देख रही हूँ भाभी! तुम चिन्ता न करो। मैं नलिनी के पथ का अनुगमन नहीं करूँगी। उसकी भूल का कारण मैं जान गई हूँ, इस ज्ञान से मैं लाभ उठाऊँगी। इस दिशा में मैं कोई पग नहीं उठाऊँगी। जब तक तुमसे मैं राय नहीं कर लूँगी, ऐसा कोई कार्य नहीं करूँगी।’’
उन दोनों में ऐसी बातें प्रायः प्रात काल के संगीत के अभ्यास के समय हुआ करती थीं। सुमति अब अपने पति के कमरे में ही सोया करती थी और पति-पत्नी में सामान्य जीवन चल रहा था। कभी निष्ठा के विषय में बातचीत चलती तो सुमति कहती, ‘‘वह विवाह करना नहीं चाहती। इसके लिए उसने तैयारी भी आरम्भ कर दी है। अब उसने संगीत-भवन में सीखने जाना भी छोड़ दिया है। मैंने जब इस विषय में पूछा तो वह कहने लगी कि उसने इतना सीख लिया है कि इससे अब वह स्वयं प्रगति कर सकती है। परन्तु उसने अभ्यास के लिए अब तुलसी, मीरा, कबीर और संस्कृत-साहित्य में से पद ढूँढ़ने आरम्भ कर दिए हैं। अब वह प्रायः विनय-पत्रिका में से पद गाया करती है। रवीन्द्र के गीतों से उसे अरुचि होती जाती है। एक दिन मैंने उसको इस गीत का सुझाव दिया–
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