उपन्यास >> सुमति सुमतिगुरुदत्त
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बुद्धि ऐसा यंत्र है जो मनुष्य को उन समस्याओं को सुलझाने के लिए मिला है, जिनमें प्रमाण और अनुभव नहीं होता।
सुदर्शन को क्रोध तो आया परन्तु उसने वास्तविक बात पर ध्यान देना अधिक आवश्यक समझकर कहा, ‘‘पिताजी कुछ तो देंगे ही। वे अपनी सामर्थ्य के अनुसार ही देंगे। यद्यपि इस विषय में कानून बन चुका है परन्तु उन कानून वाले मूर्खों की आप चिन्ता न करें। लेना-देना तो स्नेहवश होता है और कोई माता-पिता अपनी सन्तान को देने में किसी बात की कमी नहीं रखते।’’
‘‘दहेज के विषय में कानून तो ठीक है। वे मूर्ख नहीं, उन्होंने बहुत ही समझदारी की बात की है। परन्तु मैं तो उस भाग के विषय में बात कर रहा हूँ जो लड़की को अपने पिता की सम्मत्ति में से मिलने वाला है।’’
‘‘वह भी तो पिताजी के अधीन है। उनकी पूर्ण सम्पत्ति उनकी अपनी पैदा की हुई है, वे चाहें तो उसमें से किसी को हिस्सा दें और न चाहें तो सब-की-सब धर्मार्थ कर दें।’’
‘‘इसी कारण तो मैंने उक्त प्रश्न किया था। उसमें अपनी लड़की को उनका कितना देने का विचार है?’’
सुदर्शन ने उसके मुख से कहलाने के लिए पूछा, ‘‘आप कितना चाहते हैं?’’
‘‘मैं चाहूँगा कि आपके पिता अपनी पूर्ण सम्पत्ति के तीन भाग कर अपनी सन्तान में विभक्त कर दें। मूलधन भले ही वे अपने पास रखें परन्तु उसका ब्याज तो दे दिया करें। वह कितना होगा, मुझे पता लग जाए तभी सुधाकर अपने परिवार की नींव रख सकता है।’’
‘‘मैं माताजी के सम्मुख आपकी इच्छा को व्यक्त कर दूँगा’’
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