उपन्यास >> सुमति सुमतिगुरुदत्त
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बुद्धि ऐसा यंत्र है जो मनुष्य को उन समस्याओं को सुलझाने के लिए मिला है, जिनमें प्रमाण और अनुभव नहीं होता।
‘‘ओह, तभी यह अपनी भाभी से बातें करने लगी थी। यह मेरे दफ्तर में स्टैनो है, घर का भी कुछ काम-काज देख लेती है। सुधाकर की माँ के जीवित न होने से ऐसा कोई नहीं है जो इतनी बड़ी कोठी को सँभाल सके। यह दफ्तर के समय के बाद यहाँ आ जाती है और इस कार्य में मेरी सहायता भी कर देती है।’’
सुदर्शन ने वास्तविक बात की ओर अग्रसर होते हुए कहा, ‘‘मैंने अपनी बहन निष्ठा से कहा था कि वह सुधाकरजी को देखना चाहती है तो हमारे साथ चले किन्तु उसने प्रारभ्भिक वार्तालाप हम पर ही छोड़ दिया है। सुधाकरजी ने उसे देख ही रखा है, इसलिए मैंने उसे चलने के लिए विवश नहीं किया।’’
ओझा बोला, ‘‘मेरे जानने की बात तो केवल इतनी ही है जब अपने लड़के की पूर्ण योग्यता, जिस पर मैंने अपनी सम्पत्ति और परिश्रम व्यय किया है, किसी पत्तीदार से साझे प्रयोग के लिए देने वाला हूँ तो मुझे विदित होना चाहिए कि वह पत्तीदार इसमें कितना धन लगाने वाला है?’’
सुदर्शन इसका अर्थ नहीं समझ सका तो उसने इसकी व्याख्या जाननी चाही। उसने पूछा, ‘‘स्पष्ट कहिए जिससे कि किसी प्रकार की भ्रांति न रह जाए।’’
‘‘डॉक्टर साहब! लड़के के मनपसन्द की लड़की मिलेगी और लड़की को लड़का। इसमें मेरी किसी प्रकार की रुचि नहीं। मेरी रुचि तो इसमें है कि मेरे लड़के का यह नया परिवार बन रहा है। इस परिवार में पूँजी के तौर पर मैं लड़के की योग्यता के रूप में चालीस हजार और दस लाख उसके अतिरिक्त लगा रहा हूँ। मैं जानना चाहता हूँ कि आपके पिता इस कम्पनी की पूँजी में कितना लगा रहे हैं?’’
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