उपन्यास >> सुमति सुमतिगुरुदत्त
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बुद्धि ऐसा यंत्र है जो मनुष्य को उन समस्याओं को सुलझाने के लिए मिला है, जिनमें प्रमाण और अनुभव नहीं होता।
सुमति चुपचाप बैठी थी। वह चाहती थी कि जो कुछ नलिनी बताना चाहती है वह स्वयं ही बताए। चाय तथा कुछ अल्पाहार का सामान बैरा रख गया तो नलिनी ने चाय बनाते हुए कहा, ‘‘तुमने प्रातः कहा था कि यह मेरे मन की दुर्बलता है। मैं उसी विषय पर अपनी बात बताना चाहती हूँ। मैं उस दुर्घटना को दुर्बलता नहीं मानती। उसे मैं परिस्थितियों में विवशता का नाम देती हूँ। उस समय डॉक्टर साहब का मुझसे विवाह का प्रस्ताव करने के बजाय तुमसे विवाह करने के लिए तैयार हो जाना और मेरा तुमको इतना सुन्दर पाना कि अपने को तुमसे होड़ लगाने में अयोग्य समझ, मैं निराश हो गई थी। उस हीन परिस्थिति में तिनक से धक्के से मैं गिर गई थी।
‘‘इस बार भी कुछ ऐसी ही बात हुई है। तुम्हारी सास की रोटियाँ तोड़ते हुए डेढ़ वर्ष से अधिक हो गया है। कई बार तुमने कपड़े इत्यादि के लिए मुझे रुपए दिए थे। यदि इन सबके प्रतिदान में मैं आप लोगों को कुछ देती तो मेरे मन में इतना क्षोभ न होता।’’
‘‘एक बार मैंने डॉक्टर साहब से कहा भी था कि वे मुझे अपनी दूसरी पत्नी के रूप में स्वीकार कर लें। उन्होंने स्वीकार नहीं किया। वे कहने लगे कि मैं उनकी बहन बनकर ही रह सकती हूँ। मैंने कहा भी था कि मैं तुम्हारी अनुमति प्राप्त कर सकती हूँ। इस पर वे बोले कि उन्होंने तुम्हारे कहने पर मुझे बहन बनाया है।’’
‘‘यदि वे मान जाते तो मैं समझती कि इस सब सुख-सुविधा का मैं कुछ तो प्रतिदान दे रही हूँ। मैंने इस विषय में उनकी काफी खुशामद की थी। जब वे नहीं माने तो मैं अपना पृथक् घर बनाकर रहने का विचार करने लगी। इसके लिए या तो पति चाहिए था अथवा नौकर रखने वाला मालिक। डॉक्टर साहब नहीं माने तो मैंने नौकरी ढूँढ़ने का यत्न किया। तीन मास के निरन्तर प्रयत्न के बाद यह नौकरी मिली है इसके लिए भी रिश्वत देनी पड़ी है। साथ ही नौकरी बहाल रखने के लिए समय-समय पर इसी प्रकार की रिश्वत देनी पड़ेगी।’’
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