उपन्यास >> सुमति सुमतिगुरुदत्त
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बुद्धि ऐसा यंत्र है जो मनुष्य को उन समस्याओं को सुलझाने के लिए मिला है, जिनमें प्रमाण और अनुभव नहीं होता।
‘‘लगभग दस मिनट प्रतीक्षा करनी पड़ी है। मैं घर से जल्दी चला आया था। मैंने यही उचित समझा कि तुम्हारे प्रतीक्षा करने की बजाय मेरा पहले पहुँच जाना ठीक है।’’
पहले भी कई बार सुमति इस आश्रम में आ चुकी थी। पुरोहितजी के गुरु स्वामी करपात्रीजी महाराज जब कभी भी दिल्ली में आते तो यही ठहरा करते थे। सुमति बचपन से इनके दर्शन करने अथवा उपदेश सुनने के लिए आया करती थी। आज प्रातःकाल उसके पिता ने फोन पर बताया था कि स्वामीजी आए हुए हैं और वे उनसे मिलने के लिए ठीक ग्यारह बजे जा रहे हैं।
सुमति ने स्वयं भी जाने की इच्छा व्यक्त की और दोनों ने कश्मीरीगेट बस-स्टाप का स्थान निश्चित कर लिया।
ऑफिस से छुट्टी होने पर सायंकाल नलिनी बस से गुरुद्वारा रोड जाया करती थी। आज भी साढ़े पाँच बजे वह वहाँ पहुँच गई। डॉ० सुदर्शन प्रायः साढ़े चार बजे घर पहुँच जाया करता था। उसके आते ही चाय तैयार हो जाती और वे लोग मिलकर चाय पीते। तदनन्तर कभी पैदल ही और कभी सुमति के साथ कार में वह इंडियागेट की ओर घूमने निकल जाया करता था। वहाँ से लौटकर वह लगभग एक-डेढ़ घण्टा अपनी पत्नी तथा पुत्रादि के साथ बैठा करता था। तब तक रात्रि के भोजन का समय हो जाता। भोजनोपरान्त परिवार के सभी लोग बैठकर सामयिक विषयों पर वार्तालाप करते। सब अपनी-अपनी समस्याएँ बताया करते। यदि किसी को कोई काम होता तो वह ड्राइंगरूम में जाने की अपेक्षा अपने कमरे में चला जाता।
आज डॉ० सुदर्शन घूमने गया तो नलिनी आ गई। उसने अपने लिए सुमति के कमरे में ही चाय मँगवा ली। वह प्रातः के अपूर्ण वार्तालाप को पूर्ण करना चाहती थी।
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