उपन्यास >> सुमति सुमतिगुरुदत्त
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बुद्धि ऐसा यंत्र है जो मनुष्य को उन समस्याओं को सुलझाने के लिए मिला है, जिनमें प्रमाण और अनुभव नहीं होता।
नलिनी गम्भीर हो इस प्रश्न पर विचार करने लगी। इस समय तक वे डॉ० सुदर्शन के कॉलेज में जा पहुँचे थे। उसने गाड़ी से उतरते हुए कहा, ‘‘नलिनी! तनिक विचारकर उत्तर देना। रात को मैं तुमसे इस विषय में पूछूँगा।’’
सुदर्शन उतरा तो सुमति ने नलिनी के कार्यालय की ओर गाड़ी घुमा दी। नलिनी ने कहा, ‘‘सुमति बहन!’ आप दोनों पति-पत्नी की बात मुझे बड़ी विचित्र प्रतीत होती है। आप लोगों से बात करने पर मुझे अपनी पूर्ण जीवन-मीमांसा पर सन्देह होने लगता है। इसीलिए मैंने आप लोगों को बताया ही नहीं था कि मैं नौकरी ढूँढ़ रही हूँ।’’
‘‘मैं इसे तुम्हारे मन की दुर्बलता समझती हूँ। पहले भी तुममें यह दुर्बलता थी। मेरा मतलब उस समय से है जब खड़वे यहां विवाह करने आया था। मैं समझती हूँ कि उस समय की भूल तो बहुत भयंकर थी, इसको मैं उतनी भयंकर नहीं मानती।’’
‘‘वह सामने हमारा कार्यालय है। इस समय तो मैं अपने मन की पूर्ण अवस्था बता नहीं सकती। हाँ, सायंकाल इस विषय पर मैं आपसे बात करूँगी।’’
सुमति को अपने पिता के साथ कुदसिया घाट पर साधु आश्रम में जाना था। उसके पिता कश्मीरीगेट के बस स्टाप पर उसकी प्रतीक्षा करने वाले थे, वहाँ से वह उन्हें अपनी मोटर में ले जाने वाली थी। नलिनी को वहाँ उतार वह उस ओर चली गई।
पण्डित मधुसूदन उससे पूर्व वहाँ पहुँचे हुए थे। सुमति ने उनको गाड़ी में बैठाते हुए पूछा, ‘‘आपको बहुत देर तो नहीं हुई?’’
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