उपन्यास >> सुमति सुमतिगुरुदत्त
|
327 पाठक हैं |
बुद्धि ऐसा यंत्र है जो मनुष्य को उन समस्याओं को सुलझाने के लिए मिला है, जिनमें प्रमाण और अनुभव नहीं होता।
नलिनी को अपनी निर्लज्जता पर लज्जा अनुभव हो रही थी और वह अपने इस के व्यवहार को स्वयं स्वीकार करने का साहस नहीं कर सकी।
इन्हीं दिनों में सुमति की अपनी सास से पृथक् में भी बात हुई। मध्याह्न के समय नलिनी कहीं गई हुई थी। निष्ठा संगीत-भवन चली गई थी। कल्याणी ने अवसर देख सुमति से कहा, ‘‘बेटा! पति-पत्नी का सम्बन्ध उत्तरोत्तर शरीर से हटकर मन और आत्मा का होता जाना चाहिए। इसके लिए सामीप्य बढ़ाना चाहिए, इसलिए ही मैंने तुमसे कहा था कि तुमको अब अपने पति के कमरे में ही सोना चाहिए। यह तो मैं देख रही हूँ कि तुम उससे अधिक मिलकर रहती हो परन्तु जो सहचारिता होनी चाहिए वह मैं अभी नहीं देख रही।
‘‘इससे मुझे सुदर्शन के जीवन में कहीं छिद्र दिखाई देने लगे हैं। उन छिद्रों में कोई अनधिकारी व्यक्ति घुसकर उसके हृदय में बैठ सकता है।’’
सुमति इस बात का अर्थ समझती थी। उसने अपने मन की बात बताते हुए कहा, ‘‘माँजी! मैं तो उनके अधीन हूँ। वे जिस प्रकार रहने के लिए कहेंगे, मैं उस प्रकार रहूँगी। जहाँ तक मुझे स्मरण है, आज तक भी मैं वैसे ही रही हूँ जैसा रखने की उनकी इच्छा थी। वे शरीर के समीप रखेंगे तो शरीर भी उनका है और मन से रखेंगे तो मन भी उनके ही अधीन है।’’
‘‘वह रात को अपने समीप सोने के लिए नहीं कहता?’’
|