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उपन्यास >> सुमति

सुमति

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :265
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 7598
आईएसबीएन :9781613011331

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बुद्धि ऐसा यंत्र है जो मनुष्य को उन समस्याओं को सुलझाने के लिए मिला है, जिनमें प्रमाण और अनुभव नहीं होता।


‘‘जब कहते थे, तब मैं सोती थी। जब कहते हैं तब सो जाती हूँ। जब कहेंगे तब सोने का यत्न करूँगी।’’

माँ समझ गई कि वह व्यर्थ में चिन्ता करने लगी है। कम-से-कम सुमति से कुछ कहने की आवश्यकता नहीं है। इस कारण उसने बात बदलते हुए कहा, ‘‘नलिनी का अब क्या कार्यक्रम है?’’

‘‘मैंने पूछा नहीं। पूछना उचित भी नहीं समझती। जब मैं उसको यहाँ लाई थी तब मेरे मन में भी यही विचार था कि वह एक विधवा-तुल्य बहन है। उसके खाने-पीने और रहने की व्यवस्था करनी चाहिए।’’

‘‘परन्तु आजकल तो विधवाओं के भी विवाह हो जाते हैं।’’

‘‘होते तो है, किन्तु उनकी इच्छा से। किसी को विवश करके तो विवाह नहीं किया जा सकता।’’

‘‘साधन-विहीन विधवा को तो स्वयं ही इस प्रकार विचार करना चाहिए। समाज ने विवाह का द्वार तो उनके लिए खोल ही दिया है, साथ ही यदि वे विवाह करना न चाहें तो नौकरियों का द्वार भी खोल दिया है।’’

‘‘ओह! मैं समझी नहीं थी। आपने तो विवाह और नौकरी को एक ही रोग की चिकित्सा समझा है। मैं दोनों को भिन्न-भिन्न समझी थी। विवाह तो गृहस्थ-पालन के लिए है, वह पेट भरने का साधन नहीं। विवाह तो किसी उद्देश्य-विशेष के लिए पति-पत्नी का किसी भयंकर चक्की में पिसने के समान है। इसी कारण मैंने कहा था कि विवाह-जैसी बात के लिए किसी को विवश नहीं किया जा सकता।’’

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