उपन्यास >> सुमति सुमतिगुरुदत्त
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बुद्धि ऐसा यंत्र है जो मनुष्य को उन समस्याओं को सुलझाने के लिए मिला है, जिनमें प्रमाण और अनुभव नहीं होता।
‘‘मैं समझता हूँ कि तुमको समझ जाना चाहिए कि यह अब नहीं बन सकता।’’
नलिनी अभी भी उसके पलंग पर बैठी थी। सुदर्शन ने देखा कि दो प्याले चाय के बने तैयार रखे थे। उसने एक उठा लिया और दूसरा नलिनी को देकर कहा, ‘‘विवाह के पूर्व मेरे मन में कई बार यह विचार उठा था कि तुमसे विवाह का प्रस्ताव करूँ, परन्तु कोई अज्ञात शक्ति थी जो प्रत्येक बार मेरे मुख को इस विषय में कुछ भी कहने से रोक देती थी। उस समय यदि तुम मुझको कुछ इस विषय में कहतीं तो न जाने मैं क्या करता, परन्तु तुमने भी तो प्रस्ताव नहीं किया। यह भी मैं उसी अज्ञात शक्ति के कारण ही समझता हूँ।
‘‘वास्तव में हमारा भाग्य हमें दो-भिन्न-भिन्न दिशाओं में लिए जा रहा था। मैं समझता हूँ कि यह हमारा भाग्य ही है जिसने हमें बहन और भाई के रूप में ला खड़ा किया है।’’
‘‘हमें सन्तोष से अपने कर्म-फल का भोग करना चाहिए।’’
मन के उद्भार, जो वह अब कई दिन से पालन कर रही थी, विलीन हो गए थे। अपने प्याले में से एक भी चुस्की भरे बिन वह पलंग से उठी और यह कह, ‘‘क्षमा करिए। पुनः एक भूल करने जा रही थी। मैं आपका धन्यवाद करती हूँ।’’
वह कमरे में निकल गई।
इस घटना का उल्लेख दोनों ने घर में किसी से नहीं किया। सुमति से भी नहीं। सुदर्शन यह विचार कर रहा था कि इसे सुमति को बताने से सुमति और नलिनी में अनबन हो जाएगी और बेचारी को जो किंचित्-मात्र सुख और मन को शान्ति मिल रही है, वह भी मिलनी बन्द हो जाएगी।
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