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उपन्यास >> सुमति

सुमति

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :265
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 7598
आईएसबीएन :9781613011331

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बुद्धि ऐसा यंत्र है जो मनुष्य को उन समस्याओं को सुलझाने के लिए मिला है, जिनमें प्रमाण और अनुभव नहीं होता।


‘‘जहाँ तक मुझे ज्ञात है, मेरे विवाह के दिन वह मेरी बहन बनकर मेरी पत्नी का शकुन करने आई थी। तब से उनका परिचय है। उस पर वर्तमान कठिनाई के कारण उससे स्त्री-वर्ग की सहानुभूति बढ़ गई प्रतीत होती है।’’

दास को तो सन्तोष हो गया, परन्तु कइयों को इस बात में सब कुछ सत्य प्रतीत नहीं हुआ। परन्तु बात यही तक सीमित नहीं रही। वह श्रीपति के कानों तक पहुँची। श्रीपति का उत्तर तो सुदर्शन के उत्तर से भिन्न था। पूछने वाले को श्रीपति ने कह दिया, ‘‘पर मित्र! यह न तो मेरा अधिकार है कि मैं बहन से पूछूँ और न ही तुम्हारा है कि तुम मुझसे पूछो।’’

‘‘पर तुम्हारे उससे कैसे सम्बन्ध हैं?’’

‘‘वह मेरी बहन है। तुम्हारी वह इससे अधिक क्या लगती है, जो तुम इतनी चिन्ता व्यक्त कर रहे हो?’’

इसने प्रश्नकर्त्ता का मुख बन्द कर दिया।

हिन्दुस्तानी स्वभावानुसार कुछ लोग व्यर्थ में चिन्ता व्यक्त करते रहे। बात वाइस-चांसलर तक पहुँची। वाइस-चांसलर डॉ० राघवन ने एक दिन डॉ० सुदर्शन को मध्याह्नोत्तर चाय पर आमन्त्रित किया और उससे नलिनी के विषय में बात चला दी। सुदर्शन ने नलिनी के साथ घटी पूर्ण घटना का वृत्तान्त बता दिया। नलिनी के विवाह-प्रबन्ध में श्रीपति की पत्नी के भाग का भी वर्णन कर दिया। उस स्थिति में श्रीपति के घर की विक्षुब्ध स्थिति पर अपनी पत्नी की उसे अपने घर में ला रखने की बात बताई तो डॉ० राघवन ने इस वार्तालाप के लिए क्षमा माँगते हुए कह दिया, ‘‘डॉ० सुदर्शन! तुम्हें मेरी इस पूछताछ से बुरा नहीं मानना चाहिए। कुछ लोगों ने मेरे सामने तुम्हारे व्यवहार की चर्चा की थी और मैंने यह अपना कर्तव्य समझा कि पूर्ण परिस्थित से अवगत हो जाऊँ। मैं समझता हूँ कि तुम्हारे व्यवहार में किसी प्रकार का दोष नहीं।’’

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