उपन्यास >> सुमति सुमतिगुरुदत्त
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बुद्धि ऐसा यंत्र है जो मनुष्य को उन समस्याओं को सुलझाने के लिए मिला है, जिनमें प्रमाण और अनुभव नहीं होता।
सुमति ने पूर्ण बात को सुनकर कह दिया, ‘‘तब तो माताजी से सम्मति कर ही आगे बात चलाई जा सकती है। माताजी को निष्ठा की बात भी बता दूँगी।’’
सुदर्शन प्रातःकाल स्वयं माताजी से बात कर उन्हें सुमति के प्रस्ताव को अस्वीकार करने की बात कहने का निश्चय कर सो गया।
सुदर्शन का विचार था कि वह प्रातः काल अपने पिता से भी सुमति के प्रस्ताव की चर्चा करेगा। परन्तु जब वह उठकर स्नानादि से निवृत्त हो, कालेज की तैयारी पूर्ण कर प्रातः के अल्पाहार के लिए भोजन के कमरे में आया तब तक सुमति अपनी सास और श्वसुर से इस विषय में बात कर उनकी स्वीकृति प्राप्त कर चुकी थी।
अल्पाहार के लिए बैठते हुए सुदर्शन ने अपनी माँ को सम्बोधित करते हुए कहा, ‘‘कल प्रो० चन्द्रावरकर की बहन नलिनी यहाँ आई थी। वह।’’
माँ ने बीच में ही बात काटकर कहा, ‘‘बेटा! वह दुखी है, उसके साथ किसकी सहानुभूति नहीं होगी? यदि उसका भाई उसकी स्वीकृति दे तो यहाँ आकर रहने में उसको सुख मिलेगा। हमारे यहाँ तो पर्याप्त स्थान है, ईश्वर की कृपा से हम उसे जीवन-भर खिला भी सकते हैं।’’
‘‘निष्ठा! तुम क्या कहती हो?’’ सुदर्शन ने अपनी बहन के मन की बात जानने के लिए पूछा।
‘‘मेरे कहने पर ही तो माताजी ऐसा कह रही हैं।’’
सुदर्शन को इससे अधिक कुछ कहने के लिए रह नहीं गया। वह मन में विचार कर रहा था कि इस प्रस्ताव में सुमति का क्या उद्देश्य हो सकता है। क्या वह अपने प्रति मेरी निष्ठा की एवं अपनी विजुगुप्सा की परीक्षा कर रही है?
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