उपन्यास >> सुमति सुमतिगुरुदत्त
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बुद्धि ऐसा यंत्र है जो मनुष्य को उन समस्याओं को सुलझाने के लिए मिला है, जिनमें प्रमाण और अनुभव नहीं होता।
रात के भोजन के बाद ड्राइवर नलिनी को मदरसा रोड छोड़ने के लिए चला गया। जाते समय पुनः सुमति ने अपने पति के सामने ही कहा, ‘‘यदि प्रोफेसर भैया स्वीकृति दे दें तो प्रसव के लिए यहाँ आ जाओ। कम-से-कम दिन के समय यहाँ आ जाया करो। मैं समझती हूँ कि वहाँ की अपेक्षा तुम्हारे चित्त को यहाँ अधिक शांति मिलेगी।’’
नलिनी ने कोई उत्तर नहीं दिया। सुमति और निष्ठा से गले मिलकर वह चली गई।
रात को डॉ० सुदर्शन ने अपनी पत्नी से विस्मय में पूछा, ‘‘सुमति! यह किस प्रकार का प्रस्ताव तुमने कर दिया?’’
‘‘क्यों, कैसा?’’
‘‘यही कि नलिनी यहाँ आकर रहने लगे।’’
‘‘इसमें गलत बात क्या है? वे लोग बहुत कठिनाई में है। उसके भाई आपके मित्र हैं, उनको तथा बहन कात्यायिनी को भी इससे सुख प्राप्त होगा। हमको किसी प्रकार के कष्ट की सम्भावना नहीं है।’’
‘‘मैं ऐसा नहीं कह रहा। मेरा कहना तो यह है कि यह घर माताजी का है, हम भी यहाँ उनकी कृपा से ही रहते हैं। उनकी स्वीकृति के बिना तुम किसी बाहरी स्त्री को कैसे स्थान दे सकती हो?’’
‘‘ओह!’’ सुमति को अपनी अनधिकार चेष्टा समझ में आ गई।
उसने क्षमा भाव से कह दिया, ‘‘मुझसे भारी भूल हो गई है। मैं माताजी से इस विषय में राय कर लूँगी। आपको तो कोई आपत्ति नहीं होगी?’’
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