लोगों की राय

उपन्यास >> बनवासी

बनवासी

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :253
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 7597
आईएसबीएन :9781613010402

Like this Hindi book 6 पाठकों को प्रिय

410 पाठक हैं

नई शैली और सर्वथा अछूता नया कथानक, रोमांच तथा रोमांस से भरपूर प्रेम-प्रसंग पर आधारित...


उस समय बड़ौज की आय सवा दो रुपये दैनिक थी। उस आय में से वह उसको वस्त्र आदि से अधिक कुछ भी लाकर नहीं दे सकता था। वह भी देख रहा था कि प्रतिमास बिन्दू को कुछ-न-कुछ नवीन वस्तु उसके मास्टर से मिलती रहती है और भेंट रखने की मेज़ अब भरती जा रही थी। बड़ौज के मन में ईर्ष्या उत्पन्न हो रही थी। वह बिन्दू को अपने मास्टर की प्रशंसा करते सुनने लगा था और कभी-कभी तो वह उसकी रूपरेखा की भी प्रशंसा कर देती थी।

बड़ौज स्वयं को मास्टर से छोटा अनुभव करने लगा था। इससे वह कभी कह नहीं सकता था कि बिन्दू उसकी प्रशंसा क्यों करती है। एक बार मास के प्रथम सोमवार को बिन्दू घर पर बहुत विलम्ब से आई। बड़ौज जानता था कि आज वह अवश्य कोई वस्तु भेंट की ग्रहण करके लाएगी। इस विचार से वह ठंड़ा साँस लेकर रह गया था और अपने भाग्य पर सन्तोष करने लगा था। उस दिन नित्य से कुछ अधिक विलम्ब हो गया था और वह बेचैनी से बिन्दू की प्रतीक्षा में अपनी कुटिया के बरामदे में आकर खड़ा हो गया था। यद्यपि अँधेरा प्रसारित हो रहा था, तथापि अभी कुछ-कुछ प्रकाश अवशेष था। इस घुसमुसे में दूर से उसको बिन्दू और उसका मास्टर दिखाई दिए। बिन्दू की बाँह मास्टर की बाँह में थी और स्टीवनसन का नौकर कोई बड़ी-सी वस्तु उठाए उनके पीछे-पीछे आ रहा था।

एकाएक बिन्दू ने मास्टर की बाँह से अपनी बाँह निकाल ली। बड़ौज को सन्देह हुआ कि उसने उसको वहाँ पर खड़ा देख लिया है। इससे तो उसका मस्तिष्क झन्ना उठा। वह समझ गया कि बिन्दू के मन में कुछ चोर आ बैठा है, जो वह अब अपने पति से मास्टर से अपनी घनिष्ठता छिपाकर रखने का यत्न करने लगी है।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book