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उपन्यास >> बनवासी

बनवासी

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :253
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 7597
आईएसबीएन :9781613010402

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नई शैली और सर्वथा अछूता नया कथानक, रोमांच तथा रोमांस से भरपूर प्रेम-प्रसंग पर आधारित...


जब से बिन्दू उसकी श्रेणी में आई थी, अपने मन में वह उसके लिए आकर्षण अनुभव करने लगा था। परन्तु यह जानकर कि वह विवाहिता है, अपने मन की भावनाओं को सदा दबाने का यत्न करता रहता था। फिर भी दिन-प्रतिदिन उसको देख वह विकलता अनुभव करने लगा था। यह आकर्षण एकपक्षीय नहीं था। बिन्दू भी इसका अनुभव करती थी। यद्यपि वह इस आकर्षण का अर्थ नहीं समझ रही थी, तथापि वह स्पष्ट देख रही थी कि उसको बड़ौज की संगति से अधिक मास्टर से बातें करने तथा उसकी बातें सुनने में आनन्द आता है।

बिन्दू को पढ़ते एक वर्ष से अधिक हो गया था, अब वह अंग्रेज़ी में बातें करने लगी थी। स्टीवनसन उसको उपहार देने लगा था। कभी कोई शाल और कभी बालों में लगाने का कोई पिन। कभी लिखने का कोई पेन, और कभी कोई सचित्र पुस्तक। बिन्दू उपहार की इन वस्तुओं को अपने घर पर एक मेज़ पर सजाकर रखने लगी। इस समय तक वह स्टीवनसन के घर भी जाने लगी थी। अपने घर और स्टीवनसन के घर में वह अन्तर देखने लगी थी। इस समय तक स्टीवनसन के मस्तिष्क में शैतान का राज्य हो चुका था। वह बिन्दू को अब अपनी अविवाहिता पत्नी बनाने का यत्न करने लगा था।

धनी बाप का बेटा होने से वह अपने पिता की सम्पत्ति में से प्रतिमास इंग्लैंड से रुपया पाता था। और प्रतिमास वह लुमडिंग से कुछ-न-कुछ वस्तु लाकर बिन्दू को भेंट में दे देता था। मास के प्रथम शनिवार को वह घोड़े पर सवार हो लुमडिंग जाता, रविवार को पूर्ण दिन वहाँ रहता और सोमवार को घोड़ा भगाता हुआ मध्याह्न तक स्टोप्सनगर में आ पहुँचता। आते ही स्नान आदि से निवृत्त हो वह स्कूल में उपस्थित हो जाता और स्कूल के समय के बाद लुमडिंग से लाई हुई वस्तु बिन्दू को भेंट करता।

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