उपन्यास >> बनवासी बनवासीगुरुदत्त
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नई शैली और सर्वथा अछूता नया कथानक, रोमांच तथा रोमांस से भरपूर प्रेम-प्रसंग पर आधारित...
‘मैं तुम्हारी आज की रूपराशि की उस दिन की रूपराशि से तुलना करना चाहता हूँ, जिस दिन मैंने तुम्हें पहले-पहल देखा था।’
‘कब देखा था पहले-पहल?’
धनिक ने उसको स्मरण कराया, परन्तु सोना को स्मरण नहीं आया। जीवन के अनेक दिनों में से वह एक था और उसका पति कबीले के सब युवको में से एक था, जिन्होने उसे कभी नदी में नहाते हुए देखा था।
धनिक के आग्रह पर उसने अपना रूप दिखाया था। आज भी उसकी वे सब पुरानी स्मृतियाँ मन में उठने लगी थीं।...उन स्मृतियों का रसास्वादन कर उसने कहा, ‘‘मैं तुम्हारा चित्र देखना चाहता हूँ।’’
क्या करेंगे देखकर, ‘‘मैं स्वयं जो उपस्थित हूँ।’’
इस चित्र के पूर्ण होने पर तो माइकल सोना में आसक्ति अनुभव करने लगा था। उसने अपनी पत्नी को अपने मन की बात बताई तो सोफी ने उसको मना कर दिया। सोफी का कहना था कि ये वनवासी नग्न होने में तो संकोच नहीं करते, परन्तु अपनी स्त्री के लिए सतीत्व की बहुत महिमा मानते हैं। इसके लिए हत्या कर देना तो इनके लिए साधारण-सी बात है।
परन्तु माइकल को अपनी पत्नी के कथन पर विश्वास नहीं आया। वह उस समय तो कुछ बोला नहीं, फिर भी वह मन-ही-मन अपनी कामना पूर्ण करने की योजना बनाने लगा।
अब सोफी सोना को अपनी टूटी-फूटी पहाड़ी भाषा में बात बताकर समझाने लगी थी और सोना भी कुछ आवश्यक अंग्रेज़ी के शब्द सीख गई थी और अपनी मालकिन की आवश्यकताओं को समझकर उनको पूरा कर देती थी।
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