लोगों की राय

उपन्यास >> बनवासी

बनवासी

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :253
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 7597
आईएसबीएन :9781613010402

Like this Hindi book 6 पाठकों को प्रिय

410 पाठक हैं

नई शैली और सर्वथा अछूता नया कथानक, रोमांच तथा रोमांस से भरपूर प्रेम-प्रसंग पर आधारित...


धनिक ने मन में विचार किया कि सत्य ही उस समय वह इतनी पतली-दुबली थी कि हड्डियों का पिंजर ही कही जा सकती थी। वह स्वयं उस समय ग्यारह-बारह वर्ष का कुमार था। अभी वह यौन-आकर्षण का अर्थ नहीं समझता था। इस पर भी वह जानता था कि लड़के-लड़कियों का विवाह होता है औरतों और लड़कियों को तो वह प्रायः जंगलों में नग्न देखता रहता था और किसी लड़की को इस प्रकार नग्न देखने में उसे कोई आकर्षण प्रतीत नहीं होता था। वे प्रायः कमर से ऊपर तक नग्न तो रहती ही थीं। इस पर भी उसको सोना बहुत पसन्द थी, और तब से वह उसके व्यस्क होने की प्रतीक्षा करने लगा था।

इसके बाद तो उसको वह कई बार नग्न देख चुका था। वर्ष पर वर्ष व्यतीत होते गए और उसकी हड्डियों पर मांस चढ़ता गया और एक दिन कबीले में वह सर्वश्रेष्ठ लड़की मानी जाने लगी।

सोना वयस्क हुई तो यौवनारम्भ का सूचक उत्तरीय उसके कंधे पर डाल दिया गया और उसके लिए युवक की तलाश होने लगी। इस समय तक सौतकी अपनी प्रेमिका से विवाह कर चुका था और जब धनिक सोना के पिता को अपने मन की बात कहकर आया तो सौतकी ने मान लिया था कि उसका चयन श्रेष्ठ था। सौतकी की पत्नी बहुत मोटी हो गई थी।

सोना से विवाह हुआ तो धनिक उस दिन भी अपने मन में उसके पहले दिन की रूपरेखा का चिन्तन करने लगा था। विवाह के पाश्चात् वह उसको बाँह से पकड़कर घने वन में ले गया। उसको ले जाते देख उसके कबीले वाले हँसने लगे थे।

दूर वन में एकान्त स्थान पर ले जाकर उसने उसको कहा, ‘सोना! मैं तुमको निर्वसन देखना चाहता हूँ।’’

‘क्यों?’

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book