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उपन्यास >> बनवासी

बनवासी

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :253
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 7597
आईएसबीएन :9781613010402

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नई शैली और सर्वथा अछूता नया कथानक, रोमांच तथा रोमांस से भरपूर प्रेम-प्रसंग पर आधारित...

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सोना और धनिक लुमडिंग में अपना वनवासियों का पहरावा नहीं रख सकते थे। वन में तो प्रायः स्त्रियाँ कमर के ऊपर नंगी रहती थीं। कानों में बड़े-बड़े काँच के छल्ले और गले में कौड़ियों और काँच के मनकों की मालाएँ पहनती थीं। धनिक को ज्ञात था कि नगर में न तो इन काँच और कौड़ियों के भूषण चल सकेंगे, न ही कोई स्त्री अपना वक्ष नग्न कर रह सकेगी। इस कारण अपनी बस्ती में कुछ दूर निकलकर और दिन होने से पूर्व ही उसने सोना के सब भूषण उतरवा दिए और उसको तन ढाँकने को एक उत्तरीय दे दिया। चौधरी धनिक ने भी अपने सब नागजातीय चिन्ह उतार दिए।

इससे भी कठोर समस्या नगर में ठहरने और फिर काम ढूँढ़ने की थी। लुमडिंग सैनिक छावनी थी और गोरे और गोरखे सिपाही सड़कों पर घूमते-फिरते थे। वे इन दोनों को देख पहचान जाते थे कि वे नागजातीय हैं किन्तु इनको नागाओं के साधारण अस्त्रों से भी रहित देख वे इनसे कुछ कहते नहीं थे।

एक स्थान पर दो गुरखा सिपाही कन्धों पर बन्दूक रखे दिखाई दिए। बड़ौज ने बन्दूक की रूपरेखा अपने पिता को बताई थी और उसके कार्य के विषय में भी समझाया था। इस कारण उसने दो सिपाहियों को बन्दूक लिये एक स्थान पर खड़ा देखा, तो भयभीत हो कुछ अन्तर पर खड़ा हो गया। सोना उसके साथ खड़ी थी। दोनों के कन्धों पर सामान की गठरियाँ थीं।

एक सिपाही ने संकेत से उसे अपने पास बुलाकर पूछा, ‘‘कौन हो?’’

‘‘धनिक।’’

‘‘नागजातीय हो?’’

‘‘हाँ।’’

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