उपन्यास >> बनवासी बनवासीगुरुदत्त
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नई शैली और सर्वथा अछूता नया कथानक, रोमांच तथा रोमांस से भरपूर प्रेम-प्रसंग पर आधारित...
पुनः आवाज़ आई, ‘‘सुनो! सुनो! पुरोहित पंचों से पृथक् होना चाहिए और सन्तू ही इस काम के योग्य है।’’
अभी तीसरी बार यह आदेश सुनाया जाने वाला था कि चीतू अपने स्थान से उठा और पत्थर की मुर्ति को उठाकर एक ओर करने लगा। मूर्ति बहुत भारी थी परन्तु चीतू भी मद्य पिए हुए था। उसने मूर्ति को उठा ही लिया। मूर्ति के नीचे भूमि में छिद्र था।
दूसरे पंच तो अभी समझ ही नहीं पाए थे। चीतू को अपने सन्देह की पुष्टि होती दिखाई दी। उसने फावड़ा लेकर भूमि खोद डाली। भूमि के नीचे तहकाना दिखाई दिया। सन्तू तो भगवान की मूर्ति उठती देख भाग गया था।
पंचों ने जब वह तहखाना देखा तो उसमें उतर गए और दीपक लेकर तहखाना देखते-देखते साधु की झोंपड़ी तक पहुँच गये। सन्तू वहाँ से भी भाग गया था। परन्तु पंचों को विदित था कि इस झोंपड़ी में सन्तू रहता है और रात भी वह वही सोया हुआ था।
जब पंचों को यह रहस्य विदित हुआ तो विस्मय में सब एक-दूसरे का मुख देखने लगे। चीतू उन सबको पुनः मन्दिर में ले गया और मूर्ति को यथास्थान रखवा दिया गया। उसी समय वह भी निर्णय कर लिया गया कि अब पंचायत ही पुरोहित का कार्य करेगी।
अगले दिन जब सन्तू को ढूँढ़ा गया तो सारी बस्ती में उसका कहीं पता नहीं मिला।
पंचायत ने मन्दिर के भीतर तहखाने और साधु की झोंपड़ी की सुरंग की बात गुप्त रखी। परन्तु चौधरी ने तहखाना और सुरंग को मिट्टी से पटवा दिया। अतः इसके बाद भगवान के नाम के निर्णय पंचायत द्वारा होने लगे।
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