उपन्यास >> बनवासी बनवासीगुरुदत्त
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नई शैली और सर्वथा अछूता नया कथानक, रोमांच तथा रोमांस से भरपूर प्रेम-प्रसंग पर आधारित...
चीतू का विचार था कि पुरोहित बनाया ही न जाये। पंचायत ही पुरोहित का कार्य करे। सन्तू का कहना था कि कबीले के पूर्वजों ने जो प्रथा बनाई है, उसको तोड़ना नहीं चाहिए।
पूर्णिमा के दिन सन्तू मन्दिर में आने के स्थान साधु की झोंपड़े में जा कर सो गया। उसने कह दिया, ‘‘मैंने नियम बता दिया है, अब पंचायत जाने अथवा उसका काम।’’
पंचायत बैठी। नियमानुसार पंचों ने हरिण भूनकर खाया और मद्यपान किया। इस प्रकार नशे में चूर वे मन्दिर में जाकर विचार करने लगे। चीतू चौधरी ने अपनी सम्मति सुनाई तो एक पंच ने इस पर सन्तू की आपत्ति भी सुना दी। घोर वाद-विवाद के पश्चात् यह निर्णय हुआ कि देवता से आवाज़ ली जाए।
चीतू को सन्देह हो रहा था। उसने कहा भी कि भगवान ऐसे नहीं बोलता। वह तो पंचों के मन में ही अपनी बात कहता है। इस कारण पंचों का निर्णय ही भगवान का आदेश होता है। परन्तु मद्य के नशे में चीतू की युक्ति को कोई समझ नहीं सका। सब कहने लगे, ‘‘भगवान बोलता है और वह बोलेगा।’’
अतः भगवान का पूजन होने लगा। पूजन अभी चल ही रहा था कि भगवान की पीछे से आवाज़ आने लगी, ‘‘सुनो! सुनो!’’
एक मिनट ठहरकर पुनः शब्द हुआ, ‘‘सुनो! सुनो!’’
सब दत्तचित्त होकर सुनने लगे। चीतू विचार कर रहा था कि यह मिट्टी की बनी मूर्ति कैसे बोल सकती है। जब सब सुन रहे थे तो चीतू उस समय विचार कर रहा था।
मूर्ति के नीचे से शब्द होने लगा, ‘‘पुरोहित पंचों से पृथक् होना चाहिए। सन्तू ही पुरोहित होने के योग्य है।’’
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