उपन्यास >> बनवासी बनवासीगुरुदत्त
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नई शैली और सर्वथा अछूता नया कथानक, रोमांच तथा रोमांस से भरपूर प्रेम-प्रसंग पर आधारित...
इसके विपरीत बिन्दू घाघरा पहने हुई थी, जो पर्याप्त मैला था। चोली थी, वह भी मैली थी और घाघरे के ऊपर जाँघों तक लटक रही थी। यद्यपि छः मील की यात्रा पर कपड़े सूख गए थे, फिर भी वे अस्त-व्यस्त हो रहे थे। बड़ौज ने तो चमड़े का जूता पहना था। परन्तु बिन्दू सिर और पाँव से नंगी थी। बिन्दू के खुले बाल सिर और कंधों पर फैले हुए थे जो सर्वथा खुश्क और बिखरे हुए थे।
बस्ती के लोग खड़े हो इनको देखने लगे थे। बड़ौज इस बात का अनुभव कर रहा था, परन्तु उसके पास उनकी दृष्टि से बच सकने का उपाय नहीं था। बिन्दू तो वहाँ की स्त्रियों का पहरावा देख-देखकर ही चकित हो रही थी।
आखिर वे गिरजाघर के द्वार पर जा पहुँचे। काले रंग का चोगा पहने एक व्यक्ति इनको गिरजाघर के अहाते में प्रवेश करते देख उनके समीप आकर पूछने लगा–
‘‘कहाँ से आए हो?’’
‘‘नदी पार नाग लोगों की एक बस्ती से।’’
‘‘क्यों आए हो?’’
‘‘विवाह के लिए।’’
‘‘वहाँ क्यों नहीं कराया?’’
‘‘नहीं हो सका। पुरोहित स्वयं इससे विवाह करना चाहता था।’’
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