उपन्यास >> बनवासी बनवासीगुरुदत्त
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नई शैली और सर्वथा अछूता नया कथानक, रोमांच तथा रोमांस से भरपूर प्रेम-प्रसंग पर आधारित...
दोनों जल में भीगे हुए कपड़े निचोड़ रहे थे। बिन्दू की चोली उसके शरीर के साथ सट गई थी और उसके दोनों उरोजों की रेखाएँ स्पष्ट दिखाई देने लगी थीं। बड़ौज अपने मन पर काबू नहीं पा सका। वह भुजाएँ फैलाकर बिन्दू को आलिंगन-पाश में आबद्ध करने की इच्छा करने लगा तो बिन्दू ने दो पग पीछे हटकर कहा, ‘‘विवाह के पश्चात्।’’
‘‘परन्तु रात तो...’’
बिन्दू ने होंठों पर उँगली रखकर उसको चुप रहने का संकेत किया और बोली, ‘‘उस समय अँधेरा था। अब...।’’
बड़ौज हँस पड़ा। कपड़े निचोड़ और गीले वस्त्रों के साथ ही दोनों क्रिस्तानों की बस्ती की ओर चल पड़े। वहाँ से तीन कोस चलना था।
मध्याह्न के बाद वे उस बस्ती में पहुँचे। यह भी वनवासियों की बस्ती थी। परन्तु प्रबन्ध ईसाई मिशनरियों के हाथ में था। अधिकांश झोंपड़े पक्के बने थे। सब झोंपड़े पंक्तियों में थे। बीच-बीच में चौड़े मार्ग थे। झोंपड़े के बीचों-बीच एक ऊँची इमारत थी, वह गिरजाघर था। बस्ती के चारों ओर पक्की दीवार थी और दीवार के द्वार थे। चारदीवारी के भीतर तीन सौ से कुछ अधिक निवासस्थान थे। सब-की-सब झोंपड़ियाँ एक ही आकार और विस्तार की थीं।
बड़ौज और बिन्दू झोंपडियों की दो पंक्तियों के बीच से गिरजाघर की ओर जा रहे थे। वहाँ के रहने वाले उनको देख विस्मय करते थे। इस बस्ती में रहने वालों का पहरावा बड़ौज और बिन्दू के पहरावे से सर्वथा भिन्न प्रकार का था। स्त्रियाँ प्रायः यूरोपियन ढंग का पहरावा पहनती थीं, और पुरुष प्रायः उस देश के नगरों में रहने वालों की तरह का। कुछ तो पतलून और कमीज़ पहने थे। प्रायः लुँगी और कुरता पहने थे। सबके कपड़े धुले, साफ और उज्ज्वल थे। औरतों ने बाल संवारे हुए थे और सिर के पीछे जूड़ों में बाँधे थे।
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