उपन्यास >> बनवासी बनवासीगुरुदत्त
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नई शैली और सर्वथा अछूता नया कथानक, रोमांच तथा रोमांस से भरपूर प्रेम-प्रसंग पर आधारित...
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बड़ौज बिन्दू को साथ ले, झोंपड़े से निकल गया। वहाँ से वे नदी की ओर चले गए। नदी के समीप पहुँच, बड़ौज ने अपने मन की बात बता दी, ‘‘मैं आज तुमसे विवाह करूँगा।’’
बिन्दू की आँखों में चमक द्विगुण हो गई। उसने मुस्कराते हुए पूछा, ‘‘कैसे करोगे?’’
‘‘नदी पार करके पादरियों के मन्दिर में जाकर।’’
‘‘परन्तु वहाँ हमारा देवता नहीं है।’’
‘‘हम गाँव से चले जाएँगे तो गाँव का देवता भी छूट जाएगा।’’
‘‘तो फिर गाँव को लौट नहीं सकेंगे?’’
‘‘क्या करेंगे लौटकर?’’
बिन्दू विस्मय से बड़ौज का मुख देखने लगी। मन-ही-मन वह अपने विवाहित जीवन का चित्र बनाने लगी थी। एकाएक उसमें काम का आवेग उठा। उसने कूदकर कहा, ‘‘तो चलो।’’
दोनों नदी में पैठ गए। जहाँ गहरा पानी आया, दोनों तैरने लगे। बड़ौज उन्नीस वर्ष का युवक था। बिन्दू अभी चौदह वर्ष की कुमारी थी। नदी का बहाव अधिक आया तो बिन्दू ने बड़ौज के कन्धे पर हाथ रख लिया। तैरकर पार गए, तो दोनों ने सुख का साँस लिया। बड़ौज ने कहा, ‘‘अब हम कबीले के देवता के प्रभाव से दूर हो गए हैं। यहाँ हमको कोई नहीं रोक सकता।’’
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