उपन्यास >> बनवासी बनवासीगुरुदत्त
|
410 पाठक हैं |
नई शैली और सर्वथा अछूता नया कथानक, रोमांच तथा रोमांस से भरपूर प्रेम-प्रसंग पर आधारित...
‘‘मेरी माँ और पिता को सेना के अफसर के व्यवहार में और इन पादरियों के व्यवहार में कोई अन्तर दिखाई नहीं दिया। इससे वे दोनों ईसाइयों की बस्ती को छोड़कर पुनः जंगल में चले गए हैं। मैं उनको मूर्ख समझता था, परन्तु आज तुम्हारी बात सुनकर मैं समझ गया हूँ कि वे ठीक हैं। वास्तव में तुम तो उस जाल में फँस गई हो जो ईसाइयों ने स्टोप्सगंज में फैलाया था। वहाँ के रहने वाले सजातीय नाग भी अपने को सुखी और धर्मात्मा समझते हैं। अपनी पत्नियों को दूसरों की प्रेमिका बने देखकर भी अपने को वनवासियों की अवस्था से उन्नत स्थिति में मानते हैं।
‘‘परन्तु मेरी माँ और पिता की आँखे खुल गई हैं और वे अब वहाँ सुख और शान्ति अनुभव नहीं करते।
‘‘यही अवस्था मेरी भी है।’’
‘‘तो क्या तुम भी वन में जाकर रहना चाहते हो?’’
‘‘हाँ किन्तु तुमको साथ ले जाकर, अन्यथा तुम्हारी हत्या करके।’’
‘‘मैं साथ तो नहीं जाऊँगी; हाँ, तुम मेरी हत्या कर सकते हो। चलो, मैं तुम्हारे साथ किसी एकान्त स्थान पर चलती हूँ, जहाँ तुमको कोई मेरी हत्या करते देख न सके और तुम सुख और शान्ति से अपने माता-पिता के पास जाकर रह सको।’’
‘‘ठीक कहती हो। इन ठगों के साथ ठगी करना पाप नहीं। किधर चलती हो?’’
‘‘मैं बताती हूँ, आओ।’’
|