उपन्यास >> बनवासी बनवासीगुरुदत्त
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नई शैली और सर्वथा अछूता नया कथानक, रोमांच तथा रोमांस से भरपूर प्रेम-प्रसंग पर आधारित...
‘‘और मैं! मैं तुम्हारा कुछ नहीं हूँ क्या?’’
‘‘तुम...तुम...! मैं कुछ नहीं कह सकती। मेरा हृदय कुछ कहता है। वह प्रातःकाल से ही कह रहा है। परन्तु मैं उसके कहने का अर्थ नहीं समझ सकती। इस कारण बताने में असमर्थ हूँ।’’
‘‘इसका अर्थ मैं तो यह समझता हूँ कि तुम मुझसे प्रेम करती हो, परन्तु सांसारिक और सामाजिक बन्धन इन बच्चों के द्वारा तुमको स्टीवनसन के पास ठहराए हुए हैं। उसने तुमको सांसारिक सुख से लिप्त कर मुझसे हर लिया था और अब तुमको ये बच्चे दे दिए हैं। इस भेंट को स्वीकार कर अब तुम उसको छोड़ नहीं सकतीं।’’
कुछ क्षण विचार कर बिन्दू बोली, ‘‘तुम्हारा अनुमान ठीक ही प्रतीत होता है। तुमसे प्रेम भी है और उसका एहसान भी है। अभी तो एहसान का पलड़ा भारी लग रहा है।’’
‘‘किन्तु बिन्दू, मैं अनुभव करता हूँ कि तुम मेरी हो और इसका पिता चोर है। जैसे चोर किसी बच्चे को मिठाई के लोभ में फँसाकर उसके शरीर के आभूषण चुराकर ले जाता है, वैसे ही मेरे साथ हुआ है। मैं अब उस मिठाई के प्रलोभन को समझ गया हूँ और अपने चोरी किए गए आभूषण को भी पा गया हूँ। अब मैं अपना आभूषण यहाँ से ले जाऊँगा और देखूँगा कि मुझको कौन रोकता है।
‘‘सुना है, मेरी माँ के साथ क्या हुआ? मेरे पिता और मेरी माँ एक सैनिक अफसर की लुमडिंग में नौकरी करने लगे। उस सैनिक अफसर की पत्नी ने मेरी माँ और पिता को धन दिया और फिर उस अफसर ने मेरी माँ का अपहरण कर लिया।
‘‘बाद में जब मेरी माँ को इस चोरी का ज्ञान हुआ तो वह उस अफसर को छोड़ मेरे पिता के पास चली गई। वहाँ उसने इन ईसाइयों को वही कुछ करते देखा जो सैनिक अफसर की पत्नी ने उसके पति के साथ किया था। अमरीका में बहुत-सा धन मँगवाकर हमारे सजातीयों को सुख-सुविधा देकर ईसाई बना दिया और उनके गले में से उनके देवता-रूपी आभूषण को हर लिया। वे लोग जो वन में नंगे रहते हुए तथा लड़के-लड़कियाँ इकट्ठे जल-क्रीड़ा करते हुए भी बलात्कार नहीं करते थे, वहाँ शरीर ढककर रखते हुए भी, पक्के मकानों में रहते हुए भी और पुलिस और सेना के प्रबन्ध के अधीन वही कुछ करने लगे जो स्टीवनसन ने तुम्हारे साथ किया था।
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