उपन्यास >> बनवासी बनवासीगुरुदत्त
|
410 पाठक हैं |
नई शैली और सर्वथा अछूता नया कथानक, रोमांच तथा रोमांस से भरपूर प्रेम-प्रसंग पर आधारित...
‘‘क्या उसने पाप किया है?’’
‘‘उसने एक अल्पवयस्क निर्धन की पत्नी को वाग्जाल में फँसाकर, धन का लालच दिखाकर उसे पतित किया है।’’
‘‘पर ऐसा तो आज के संसार में सभी कर रहे हैं। ईसाइयत के प्रचार के लिए ही लाखों रुपये अमरीका और इंग्लैंड से आते है। जिससे कि देश के निर्धन अपढ़ लड़के-लड़कियों को प्रलोभनों में डालकर ईसाई बना लिया जाए। उद्देश्य तो ठीक है। उपाय वैसा है, जिसके लायक यहाँ की जनता है।
‘‘यही बात मेरे साथ हुई है। मैं कम शिक्षित था और निर्धन की पत्नी थी। मास्टर धनी और अधिक पढ़ा-लिखा था। वह मुझको भेट में बढ़िया पदार्थ देता रहा और मैं स्वेच्छा से उसके साथ चली आई। उद्देश्य तो ठीक ही था। अब मैं एक धनिक आदमी की पत्नी बन गई हूँ।’’
‘‘क्या अब भी तुम यहाँ स्वेच्छा से ही टिकी हो?’’
‘‘हाँ, परन्तु बात वही है। केवल रूप बदल गया है। मैं ईसाई नहीं हूँ। परन्तु वातावरण के वशीभूत ईसाई की पत्नी हूँ। मैं स्टीवनसन की पत्नी नहीं हूँ, परन्तु अपने बच्चों के सुख और प्रसन्नता के लिए इसके पास पड़ी हूँ।’’
‘‘तुम झूठ बोल रही हो। मुझे धोखा दे रही हो। जिससे कि मैं यहाँ से बिना तुमको लिए लौट जाऊँ। तुम बताओ मेरे साथ चलोगी अथवा नहीं।’’
‘‘मैं तुम्हारे साथ जाना चाहती हूँ, पर जा नहीं सकती।’’
‘‘क्यों?’’
‘‘इम बच्चों के लिए। मुझे ये बहुत प्यारे हैं। इनके लिए ही इनका पिता भी प्यारा है।’’
|