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उपन्यास >> बनवासी

बनवासी

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :253
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 7597
आईएसबीएन :9781613010402

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नई शैली और सर्वथा अछूता नया कथानक, रोमांच तथा रोमांस से भरपूर प्रेम-प्रसंग पर आधारित...


अपने पति के इस कथन से तो बिन्दू अपने मन की बात पर विचार करने लगी। वह लेटी हुई विचार कर रही थी कि यह कौन व्यक्ति हो सकता है, जिसने उसके मन में इतना उल्लास भर दिया है। विचार करने पर उसको अपने पति का कथन सत्य प्रतीत होने लगा। उसे उस आदमी को देखकर विशेष आनन्द की अनुभूति हुई थी। वह विचार कर रही थी कि क्या वह किसी ऐसी रूपरेखा वाले आदमी को जानती है।

एकाएक उसे अपने प्रथम प्रेमी की कथा स्मरण हो आई...वह दस ग्याहर वर्ष की हो रही थी। एक दिन उसने मन में कुछ वनपुष्प एकत्रित करने का विचार उत्पन्न हुआ और वह वन को चल पड़ी थी। वनवासी लड़कियों की भाँति वह भी अर्धनग्नावस्था में थी। ढूँढ़-ढूँढ़कर पुष्प एकत्रित कर रही थी कि उसको एक आवाज़ सुनाई दी–‘इनको अपने बालों में खौंसती जाओ न?’’

उसने घूमकर देखा तो बड़ौज उसके पीछे खड़ा था। वह मुस्कराई तो बड़ौज ने उसकी झोली में से एक बड़ा-सा फूल उठाकर उसकी चोटी में खौंस दिया।

उसने उसको मना नहीं किया। जब वह फूल खौंस चुका तो उसने पूछ लिया, ‘इससे क्या हुआ?’

‘‘बिन्दू अद्वितीय सुन्दरी हो गई है।’’

‘सत्य?’

‘हाँ।’ यह कह उसने उसका मुख चूम लिया।...

तब...तब...इसके आगे वह विचार नहीं कर सकी। उसके मन में तब का बड़ौज आ विराजमान हुआ था और यह डाकबंगले वाला आदमी उसकी एक विकसित प्रतिलिपि ही प्रतीत हुआ था।

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