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उपन्यास >> बनवासी

बनवासी

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :253
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 7597
आईएसबीएन :9781613010402

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नई शैली और सर्वथा अछूता नया कथानक, रोमांच तथा रोमांस से भरपूर प्रेम-प्रसंग पर आधारित...


‘‘क्या होगा विवाह से? गिरजाघर की उस औरत की तस्वीर के सामने बात करने से अधिक पक्की हो जाएगी क्या?’’

‘‘तुमको उस औरत की मूर्ति में विश्वास क्यों नहीं होता?’’

‘‘नहीं होता, क्या करूँ? आज तक ईसाइयों के इस देवता ने कोई चमत्कार भी तो नहीं दिखाया?’’

स्टीवनसन एक बार फिर चुप हो गया। इस प्रकार की पूजा-पाठ में उसका अपना भी तो विश्वास नहीं था। फिर भी वह समझता था कि उसके सामने वचन देने से बिन्दू उससे अधिक बंध जाएगी।

बिन्दू ने कुछ विचारकर कहा, ‘‘यदि आप कहते हैं कि विवाह कराने से अधिक घना सम्बन्ध हो सकता है, तो चलिए। कल ही चलें। जहाँ आप कहें, चलने के लिए तैयार हूँ।’’

‘‘इस वसन्त ऋतु में कलकत्ता चलेंगे।’’

‘‘तो इस मिस्टर बिलमौर का पता लिख लीजिए। इसके सामने ही हम विवाह करेंगे।’’

‘‘नहीं, इसके व्यवहार ने तो मेरे मन में ईर्ष्या उत्पन्न कर दी है। आज स्केटिंग के समय भी वह तुमको देख-देखकर आनन्दविभोर हो रहा था। जब तुमने एक पाँव पर खड़े होकर चक्कर लगाने आरम्भ किए तो वह मन्त्रमुग्ध हो तुमको देखता रह गया था।’’

‘‘तो मैं क्या करूँ? भगवान ने मुझे सुन्दर बनाया है, तो इसमें मेरा क्या दोष है?’’

‘‘डार्लिंग! क्या बात है, मैं समझ नहीं सका। मुझे यह आदमी जाना-बूझा-सा प्रतीत होता है और कुछ ऐसा प्रतीत होता है कि यह तुमको मुझसे ले जाने के लिए आया है। इसी से मेरा हृदय धक्-धक् कर रहा है।’’

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