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उपन्यास >> बनवासी

बनवासी

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :253
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 7597
आईएसबीएन :9781613010402

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नई शैली और सर्वथा अछूता नया कथानक, रोमांच तथा रोमांस से भरपूर प्रेम-प्रसंग पर आधारित...


इसके उपरान्त विचार करने की बात थी कि वह अपने मालिक को बताकर जाए अथवा बताए बिना जाए। इसमें नीति यह समझ में आई कि बताए बिना जाना चाहिए।

इतना निर्णय कर उसने कार्यालय की ओर शेष मकान की चाबियाँ गिरजाघर के चौकीदार को देखकर कह दिया, ‘‘मैं एक अत्यावश्यक कार्य से दो-तीन दिन के लिए जा रहा हूँ। फादर से मेरे लिए छुट्टी माँग लेना।’’

इतना कह वह अपना छोटा-सा बिस्तर और जितना भी धन उसके पास था, जेब में रख पंजाब को चल पड़ा।

फरवरी मास का मध्य था। कुल्लू-मनाली क्षेत्र में अभी बर्फ पड़ी हुई थी। सब ओर सफेद ही सफेद दिखाई देता था। भूमि, पेड़, पहाड़ और मकान सब बर्फ की श्वेत चादर ओढ़े प्रतीत होते थे। मनाली अति सुन्दर स्थान था। भ्रमण करने वालों के रहने तथा अफसरों के लिए महकमा-जंगल का एक डाकबंगला था। इस वादी में इस बंगले के अतिरिक्त केवल एक मकान और था, जो किसी पैसे वाले का प्रतीत होता था, इनके अतिरिक्त दो-तीन लड़की के खोखे-से खड़े थे, वे भी बर्फ से ढँके थे।

बड़ौज वहाँ पहुँचा तो कुली, जो उसका सामान उठाकर लाया था, उसे डाकबंगले के बाहर ले आया। इसको ताला लगा था और इसके बैरे तथा चौकीदार का कहीं चिन्ह दिखाई नहीं देता था। कुली ने सुझाव दिया कि ताला तोड़ दिया जाए। बड़ौज ने कह दिया, ‘‘तोड़ डालो।’’

ताला तोड़कर उसने डाकबंगले पर अधिकार कर लिया और सामान का ढेर जो एक ओर लगा हुआ था कुली की सहायता से झाड़-फूँककर लगा लिया गया। बड़ौज ने कुली को वहीं अपनी नौकरी में रह जाने के लिए राज़ी कर लिया।

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