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उपन्यास >> बनवासी

बनवासी

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :253
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 7597
आईएसबीएन :9781613010402

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नई शैली और सर्वथा अछूता नया कथानक, रोमांच तथा रोमांस से भरपूर प्रेम-प्रसंग पर आधारित...


‘‘मैं अपनी गिनती पढ़े-लिखों में नहीं करता।’’

‘‘यदि आपको यह विश्वास हो जाए कि आपकी पत्नी अपने पति के साथ सुखी है तो फिर आप मुझसे विवाह की स्वीकृति देंगे?’’

बड़ौज इस प्रश्न पर गम्भीर हो गया। उसकी समझ में कुछ इस प्रकार आया कि उस दिन के खाने पर मिस सील और उसके पिता का आना और आज के आए रजिस्टर्ड पत्र का परस्पर कुछ सम्बन्ध है।

वह प्रश्न भारी दृष्टि के सामने खड़ी लड़की के श्रृंगारयुक्त मुख को देखता रह गया। नेमी सील मुस्कराती हुई उसकी ओर देख रही थी। बड़ौज ने उसको इस मुद्रा में देखकर पूछ लिया, ‘‘तुम यह सब कैसे जानती हो?’’

‘‘आपने इस बात का कोई पक्का प्रमाण नहीं दिया कि वह आपकी प्रतीक्षा कर रही है। उसकी अनुपस्थिति में मेरी धारणा ठीक है कि वह किसी के साथ बैठी सुख का भोग कर रही है।

‘‘देखिए, दो समानान्तर रेखाएँ मिलती नहीं। इसको सिद्ध करने के लिए हम मान लेते हैं कि वे मिल गई हैं। उनके मिलने से एक त्रिकोण बन जाता है जिससे समानान्तर रोखाओं की दूसरी शर्त कि उनको काटने वाली रेखा दोनों रेखाओं से समान कोण बनाती है, गलत हो जाता है। इससे हमारा मानना कि रेखाएँ मिलती हैं, गलत सिद्ध हो जाता है।

‘‘इसी प्रकार विवाह की बात है। पति-पत्नी परस्पर मिलते हैं, जो पति-पत्नी नहीं मिलते, वे समानान्तर रेखाओं की भाँति नही मिलते। बिन्दू बड़ौज से नहीं मिलती, इससे सिद्ध होता है कि बिन्दू और बड़ौज समानान्तर रेखाओं की भाँति अविवाहित हैं।’’

बड़ौज हँस पड़ा। उसने कहा, ‘‘यह युक्ति ठीक नहीं है। क्योंकि पति-पत्नी रेखाएँ नहीं होतीं। वे सजीव प्राणी हैं। रेखाओं और मानवों में समानता नहीं होती।’’

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