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उपन्यास >> बनवासी

बनवासी

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :253
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 7597
आईएसबीएन :9781613010402

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नई शैली और सर्वथा अछूता नया कथानक, रोमांच तथा रोमांस से भरपूर प्रेम-प्रसंग पर आधारित...


बड़ौज उनकी बातों को सुन रहा था और वह कुछ-कुछ भाव भी समझ रहा था। वह अंग्रेज़ी में बात तो नहीं कर सकता था, फिर भी उनकी बातचीत में से स्टील, नाग गर्ल, रन अवे इत्यादि शब्दों से समझ गया था कि वे उस पर चोर होने का सन्देह कर रहे हैं। किसी अन्य परिस्थिति में तो वह दो-चार जली-कटी सुनाकर चल देता। परन्तु किसी पादरी की नौकरी में जाने की बात उसके मन में समाई हुई थी। इसी से वह बिन्दू को पाने की आशा लगाए हुए था। अतः उसने तीनों को सम्बोधित कर कहा, ‘‘सर! मैं आपके वार्तालाप का अर्थ समझ रहा हूँ। मैं आपको बताना चाहता हूँ कि नाग लोग चोर नहीं हैं। वे योद्धा होते हैं। योद्धा कभी चोर नहीं होता।

‘‘जिस लड़की की बात ये मेम साहब कर रही हैं, उसका अवश्य किसी गोरे से प्रेम हो गया होगा और उसी के कहने पर ही उसने चोरी की होगी। प्रेम तो मनुष्य को अन्धा कर देता है।’’

पादरी इस कुली के मुख से एक सिद्धान्त की बात सुनकर चकित रह गया। उसने कुछ देर तक उसके मुख पर देखकर पूछ लिया, ‘‘तो तुम अंग्रेज़ी पढ़े हुए हो?’’

‘‘नहीं, मेरी पत्नी अंग्रेज़ी पढ़ा करती थी। उससे कुछ शब्दों को सुन आपकी बात का अभिप्राय समझ गया हूँ।’’

‘‘तो तुम विवाहित हो?’’

‘‘जी।’’

‘‘कहाँ है तुम्हारी पत्नी?’’

‘‘एक गोरे पादरी के साथ भाग गई है।’’

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