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उपन्यास >> बनवासी

बनवासी

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :253
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 7597
आईएसबीएन :9781613010402

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नई शैली और सर्वथा अछूता नया कथानक, रोमांच तथा रोमांस से भरपूर प्रेम-प्रसंग पर आधारित...

तृतीय परिच्छेद

1

बड़ौज स्टोप्सगंज से भाग गया। अब तक वह वनवासियों के वस्त्र आदि सभी चिन्ह उतार चुका था और यूरोपियन ढंग का पहरावा पहनता था। अतः जब वह लुमडिंग में पहुँचा तो वहाँ घूमने वाले सहस्त्रों वनवासियों में वह मिल गया।

एकाएक उसे लुग्गी मिली और उसने उसको बिन्दू के विषय में बताया। लुग्गी ने अपने विषय के सारी बात बताकर कहा, ‘‘इन क्रिस्तानों के रिवाज हमसे भिन्न हैं। औरतों की निष्ठा का ये लोग कुछ भी मूल्य नहीं समझते। इनमें जो भले विचार के हैं, वे भी पति-पत्नियों को छोड़कर दूसरा विवाह कर लेते हैं। जब तलाक हो जाता है तो दूसरे पुरुष अथवा स्त्री से सम्बन्ध बनाने में पाप नहीं समझते।’’

‘‘इन्हीं में एक पंथ ऐसा भी है जिसे तलाक की स्वीकृति नहीं मिलती। कभी होती भी है, तो बहुत जाँच-पड़ताल के बाद। वे लोग बिना पत्नी को छोड़े अविवाहित पत्नियाँ रख लेते हैं। एक रात के लिए भाड़े पर पत्नियाँ ले लेना तो इनमें–विशेष रूप से सैनिक छावनियों में–बहुत होता है।’’

‘‘अब तुम्हारा घरवाला कहाँ है?’’

‘‘मुझको यों ही छोड़कर वह भाग गया है।’’

‘‘मैं तो बिन्दू को ढूँढ़ने के लिए निकला हूँ।’’

‘‘कहाँ ढूँढ़ोगे उसको?’’

‘‘जहाँ भी वह मिल जाए। एक सप्ताह तक इस नगर में ढूँढूँगा, फिर अगले नगर में चला जऊँगा।’’

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