उपन्यास >> बनवासी बनवासीगुरुदत्त
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नई शैली और सर्वथा अछूता नया कथानक, रोमांच तथा रोमांस से भरपूर प्रेम-प्रसंग पर आधारित...
तब तक लुग्गी को सोना तथा धनिक के उस नगर में होने का ज्ञान नहीं था। इसी कारण वह उसको इस विषय में किसी प्रकार की सूचना नहीं दे सकी। सोना शिलांग में बिन्दू से मिलकर लौट चुकी थी और यदि कहीं वह मिल जाती तो कुछ तो सूचना उससे मिलती ही। इस प्रकार एक सप्ताह लुमडिंग में रहकर बड़ौज सिलचर चला गया। गोहाटी पहुँचते-पहुँचते उसके पास सब धन समाप्त हो गया। अब वह काम ढूँढ़ने लगा। उसकी समझ में आया कि यदि वह किसी पादरी की नौकरी करे तो बिन्दू को ढूँढ़ने का काम कुछ सरल हो सकता है। इसके साथ ही वह किसी ऐसे व्यक्ति की नौकरी करना चाहता था जो प्रायः घूमता रहे। ये दोनों शर्तें एक ही व्यक्ति में पूरी होनी कठिन थीं। फिर भी वह यही यत्न कर रहा था।
गोहाटी में उसको मज़दूरी का ही काम मिला। दिन-भर के मेहनत-मुशक्कत से उसे केवल चार आने ही मिले। वह स्टेशन पर खड़ा-खड़ा सामान ढोने का काम ढूँढ़ रहा था। चार आने में पेट तो भर गया, परन्तु शेष कुछ बचा नहीं। इससे अगले दिन फिर काम की खोज में स्टेशन के बाहर जा कर खड़ा हो गया।
दिन के बाद दिन बीतने लगे। नित्य प्रति उसकी मज़दूरी चार से आठ आने तक होती थी। जब कभी पादरी यात्री दिखाई देता तो वह उसके पास जाकर अपनी सेवाएँ प्रस्तुत कर देता। कई बार तो उसके मन में अपने प्रति सहानुभूति उत्पन्न करने के लिए वह मज़दूरी भी नहीं लेता था।
उसे निरन्तर प्रयत्न का फल मिला। एक गौरवर्णीय पादरी स्टेशन पर उतरा तो वह एक हिन्दुस्तानी का बोझा उठाता-उठाता रुक गया और पादरी के सामने जाकर बोला, ‘‘कुली चाहिए सरकार!’’
पादरी उसके मुख पर देखकर कहने लगा, ‘‘उस बाबू का सामान क्यों नहीं उठाया?’’
उसके मुख से अनायास ही निकल गया, ‘‘फादर! मैं आपकी सेवा में खुशी अनुभव करता हूँ।’’
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