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उपन्यास >> बनवासी

बनवासी

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :253
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 7597
आईएसबीएन :9781613010402

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नई शैली और सर्वथा अछूता नया कथानक, रोमांच तथा रोमांस से भरपूर प्रेम-प्रसंग पर आधारित...


सोफी मन में विचार कर रही थी कि इस पादरी ने उन भले लोगों को इस कारण इस मूर्ख डॉक्टर के अधीन रखा हुआ है ताकि वह उनको ईसाई बना सके। इस प्रकार ‘हीदन्ज़’ अर्थात् विधर्मियो को बल तथा छल से ईसाई धर्म के झंड़े के तले लाने की बात स्मरण कर हँस पड़ी। उसके मन की अवस्था ऐसी थी कि वह पादरी को भी दो-चार जली-कटी सुनाने लगी थी। परन्तु तब तक वे उस अंधे के कैम्प में पहुँच गए थे। अन्य कैम्पों की अपेक्षा इस कैम्प में हाय-हाय के कराहने के शब्द के स्थान पर हँसी-ठट्टे की ध्वनि सुनाई दे रही थी।

इससे सोफी पादरी की मूर्खता को भूल गई और कैम्प वालों में जाकर उनसे पूछने लगी, ‘‘हाँ, तो कौन है वह आदमी?’’

इनको आया देख वहाँ के रोगी मौन गए। वे पादरी के साथ एक गोरी औरत और साथ ही अस्पताल के आठ-दस कर्मचारियों को आता देख समझ गए थे कि कोई बड़ी औरत आई है।

सोना ने नज़र दौड़ाई तो धनिक को दोनों हाथों से अपना सिर पकड़े एक कोने में बैठे देख लिया। उसे देखकर वह स्तब्ध रह गई। वह बोलना नहीं चाहती थी। उसको भय लग रहा था कि उसको यदि कहीं यह विदित हो गया कि मैं यहाँ हूँ तो यहाँ भी उसका गला दबाकर हत्या कर देगा। उसने सोफी को अपने होठों पर उँगली रखकर ऐसा ही संकेत कर दिया।

सोफी समझ गई कि लुमडिंग के सैनिक हस्पताल का कम्पाउंडर यहाँ मिल गया है। परन्तु उसके अन्धा हो जाने की बात स्मरण कर वह कितनी ही देर तक उसको निहारती खड़ी रही। पादरी ने समीप आकर कहा, ‘‘यही आदमी है, जिसने अपने कैम्प वालों को ठीक किया है।’’

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