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उपन्यास >> बनवासी

बनवासी

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :253
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 7597
आईएसबीएन :9781613010402

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नई शैली और सर्वथा अछूता नया कथानक, रोमांच तथा रोमांस से भरपूर प्रेम-प्रसंग पर आधारित...


सोफी ने पादरी को बताया कि वह इसको जानती है। सोफी की आवाज़ सुनकर धनिक ने मुख उठाया और जिस ओर से आवाज़ आई थी उसने उधर को मुख किया। परन्तु अगले ही क्षण यह अनुभव कर कि वह तो देख सकता ही नहीं, उसने पुनः मुख नीचा कर लिया। सोफी ने उसके मुख की रेखाओं से उसके मन के भावों का अनुमान लगाकर कहा, ‘‘धनिक! मेरी आवाज़ पहचानते हो?’’

‘‘ओह! जरनैल की बीबी! पहचान गया हूँ।’’

‘‘सुना है तुम्हारी आँखे खराब हो गई हैं।’’

‘‘हाँ, भाग्य का खेल है।’’

‘‘तुमने यहाँ भी अपनी चिकित्सा आरम्भ कर दी है।’’

‘‘हाँ, परन्तु यहाँ का डॉक्टर दूसरों का इलाज नहीं करने देता।’’

‘‘मैं तुम्हें स्वीकृति दिलाने के लिए आई हूँ। परन्तु आँखों के बिना तुम यह काम कैसे कर सकोगे?’’

‘‘यदि सोना होती तो मैं कुछ तो अवश्य ही कर लेता।’’

‘‘सोना आना चाहती है, परन्तु वह डरती थी कि कहीं तुम उसकी हत्या न कर दो।’’

‘‘वह मूर्ख है जो मरने से डरती है। औरत पति के हाथ से मरे तो स्वर्ग में जाती है। परन्तु अब तो डरने की बात ही नहीं रही। सुना है, सहस्त्रों घायल पड़े हैं जिनको तुम्हारा डॉक्टर ठीक नहीं कर सकता!’’

‘‘तुम वचन दो कि उसको मारोगे नहीं तो मैं उसको बुला सकती हूँ।’’

‘‘यदि आप चाहती हैं कि घायलों की मरहम-पट्टी करूँ तब तो उसको बुला दीजिए।’’

‘‘वह थोड़ी देर में आ जाएगी।’’

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