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उपन्यास >> बनवासी

बनवासी

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :253
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 7597
आईएसबीएन :9781613010402

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नई शैली और सर्वथा अछूता नया कथानक, रोमांच तथा रोमांस से भरपूर प्रेम-प्रसंग पर आधारित...

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दो सहस्त्र से अधिक आहत वनवासी स्टोप्सगंज के कुछ अन्तर पर एक अस्थायी अस्पताल में पड़े थे। उस अस्पताल का प्रबन्ध उसी बस्ती के ईसाई कर रहे थे। अस्पताल का खर्चा हिन्दुस्तान की सरकार दे रही थी। सोफी माइकल नॉर्थ ईस्टर्न फ्रण्टियर एजेन्सी के क्रिश्चियन मिशन की प्रबन्ध कमेटी में थी। अतः उसको इस अस्पताल के विषय में पूर्ण जानकारी थी।

पिछली रात जब सोना ने बताया था कि अपनी सजातीय बहिनों की दुर्दशा से दुःखी होने के कारण वह माइकल को प्रसन्न करने में असमर्थ है तो सोफी को सोना के भावों में यथार्थता प्रतीत हुई थी। वह भी अब तक वनवासियों के साथ हुए अत्याचार की बहुत कहानियाँ सुन चुकी थी और उनसे वह प्रसन्न नहीं थी।

सोना के स्वेच्छा से समर्पण करने की बात सुनकर वह बलात्कार और पति-पत्नी के सम्बन्ध में अन्तर समझने लग गई थी। विवाह को तो वह एक सामाजिक व्यवहार-मात्र समझती थी। इसके अतिरिक्त पति-पत्नी के सम्बन्ध तथा बलात्कारजनित वासना-तृप्ति में अन्तर वह इच्छा-अनिच्छा को ही समझती थी। इस कारण उसको हिन्दुस्तानी सैनिकों के वनवासी स्त्रियों के सम्बन्ध में अत्याचार का भास होने लगा था।

एक बात उसकी समझ में यह भी आई कि एक अनपढ़ और असभ्य कही जाने वाली जाति की महिला भी इतनी बारीकी से विचार कर सकती है, जितनी उस जैसी सभ्य जाति की महिला। इससे वह अपने पति से कह कर सोना के भावों का आदर करने की बात सोचने लगी। पहले तो वह जाकर उसी समय सोना को मिले ऑर्डर को रद्द करने का यत्न करने वाली थी। किन्तु यह विचार कर कि इस समय उसका पति शराब के नशे में मस्त होगा और बात की श्रेष्ठता को समझ नहीं सकेगा, उसने अपना विचार प्रातःकाल तक के लिए स्थागित कर दिया।

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