उपन्यास >> बनवासी बनवासीगुरुदत्त
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नई शैली और सर्वथा अछूता नया कथानक, रोमांच तथा रोमांस से भरपूर प्रेम-प्रसंग पर आधारित...
सोफी घुड़सवारी का बाना धारण किए हुए अपने कमरे में खड़ी थी। उसके हाथ में घोड़ा हाँकने वाला बेंत भी था। जब सोना उसके सामने खड़ी आकर हो गई तो उसने कहा, ‘‘सोना, मेरे साथ चलोगी?’’
‘‘कहाँ सरकार!’’
‘‘मैं स्टोप्सगंज के कैम्प-अस्पताल में जा रही हूँ। वहाँ बहुत से युद्ध में घायल वनवासियों को रखा हुआ है, उन्हे परिचारकों की बहुत कमी पड़ रही है।’’
सोना इसका अर्थ नहीं समझ सकी। उसने पूछ लिया, ‘‘पर सरकार! हम वहाँ जाकर क्या कर लेंगे?’’
‘‘मैं वहाँ की हालत अपनी आँखों से देखना चाहती हूँ; और जो सेवा हो सकेगी, कर लेंगे।’’
‘‘आप हम गरीब लोगों के लिए क्यों कष्ट करेंगी, मैं अपने आप ही वहाँ चली जाती हूँ।’’
‘‘मैं भी तुम्हारे साथ चल रही हूँ।’’
सोना परेशानी में मुख देखती रह गई। सोफी ने चारों ओर दृष्टि दौड़ाई, मानो वह अपनी किसी प्रिय वस्तु पर अन्तिम दृष्टिपात कर रही हो। इसके बाद दोनों कमरे से निकल बाहर खड़े दो घोड़ों के समीप जा पहुँचा। एक साईस ने दोनों की लगाम पकड़ी हुई थी। सोफी ने उसके हाथ से लगामें ले लीं। उनमें से एक लगाम सोना को पकड़ाते हुए बोली,
‘‘चलो, चलें।’’
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