उपन्यास >> बनवासी बनवासीगुरुदत्त
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नई शैली और सर्वथा अछूता नया कथानक, रोमांच तथा रोमांस से भरपूर प्रेम-प्रसंग पर आधारित...
‘‘आज एक नाग औरत मेरे पास आई थी और उसने अपनी तथा अपनी बहिनों की दुर्दशा का बखान किया था।’’
‘‘परन्तु तुमको इससे क्या? तुम भी तो साहब को प्रसन्न करती हो।’’
ठीक है सरकार! पर मैं स्वेच्छा से अपने को अर्पण कर रही हूँ। उन औरतों के साथ तो बलात्कार किया गया है।’’
‘‘स्वेच्छा से!’’ सोफी के मुख से निकला। उसने गिटार भूमि पर रख दिया और उठकर खड़ी हो गई। अनिश्चित मन वह कभी सोना के मुख पर और कभी बेडरूम के द्वार की ओर देखने लगी। फिर कुछ विचारकर पूछने लगी, ‘‘अब कहाँ जा रही हो?’’
‘‘अभी तो अपने क्वार्टर में जाऊँगी। परन्तु कल प्रातःकाल ही कोठी छोड़ देने की आज्ञा है।’’
‘‘अच्छा, कल जाने से पहले मुझसे मिल लेना।’’
‘‘क्या होगा सरकार इससे? मेरे लिए आपको साहब से झगड़ा नहीं करना चाहिए। हम तो नौकर आदमी हैं। यहाँ नहीं, कहीं और नौकरी मिल जाएगी।’’
‘‘कोई बात नहीं, किन्तु तुम मिलकर जाना।’’
सोना चली गई। उसने अपने मन में निश्चय कर लिया था कि अब वह जनरल की सेवा में नहीं रहेगी। वह भागकर जंगल में जाना चाहती थी। परन्तु कहाँ? किसके पास? और अकेली जा कैसे पाएगी, वह कुछ निश्चित नहीं सोच सकी।
अनिश्चित योजना के साथ रात-भर सोना अपने बिस्तर पर करवटें बदलती रही। प्रातःकाल उठ स्नान आदि नित्य कर्म से निवृत्त हो उसने अपने आवश्यक सामान की गठरी बनाई और उसे उठा सोफी के कमरे में जा पहुँची।
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