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उपन्यास >> बनवासी

बनवासी

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :253
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 7597
आईएसबीएन :9781613010402

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नई शैली और सर्वथा अछूता नया कथानक, रोमांच तथा रोमांस से भरपूर प्रेम-प्रसंग पर आधारित...


‘‘हम तुमको हुक्म देते हैं कि चली जाओ।’’

‘‘अच्छी बात है। प्रातःकाल चली जाऊँगी।’’

रात के भोजन के बाद जनरल ने सोना को अपने कमरे में बुलाया था। वहीं पर यह वार्तालाप हुआ। जब सोना को निकल जाने की आज्ञा हुई तो वह कमरे से निकल आई। सोफी अभी भी ड्राइंग रूम में बैठी हुई अपने गिटार पर कोई विरह-गीत गा रही थी। सोना को जाते देख उसे उसने रोक लिया।

सोना रुक गई और उसने घूमकर सोफी की ओर देखा। सोना का मुख श्वेत हो गया था। मानो उसमें रक्त हो ही नहीं। उसकी आँखे भी तरल हो रही थीं।

‘‘क्या बात है सोना?’’ सोफी ने पूछा।

‘‘मुझे हुक्म हुआ है कि मैं यहाँ से चली जाऊँ।’’

‘‘क्यों, क्या कसूर किया है तुमने?’’

‘‘मेरा मन आज उनकी बात मानने को तैयार नहीं हुआ।’’

‘‘क्यों तैयार नहीं हुआ?’’

‘‘अपने सजातियों के इतनी बड़ी संख्या में मारे जाने के कारण...और...और...’’

‘‘और क्या?’’

‘‘बहुत बड़ी संख्या में सजातीय स्त्रियों के साथ बलात्कार किए जाने के कारण।’’

‘‘किसने बताया है तुमको?’’

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