उपन्यास >> नास्तिक नास्तिकगुरुदत्त
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खुद को आस्तिक समझने वाले कितने नास्तिक हैं यह इस उपन्यास में बड़े ही रोचक ढंग से दर्शाया गया है...
नगीना वहाँ से भी उठने लगी, परन्तु प्रज्ञा ने उसकी बाँह पकड़ कर उसे पुनः अपने पास बैठाकर कहा, ‘‘देखो बहन नगीना! ऐसा कहना गाली नहीं है। वह तो मुझे भी कहा करते थे कि मैं एक ओजस्वी लड़की हूँ और अवश्य किसी बहुत ऊँचे पद पर पहुँचूँगी।’’
‘‘तो भाभीजान! आप उस पद पर पहुँच गई हैं क्या?’’
‘‘हाँ! उसकी राह पर चल रही हूँ। कुछ महीनों की कसर प्रतीत होती है।’’
‘‘तो मैं अब यहाँ ही रहूँगी?’’ नगीना ने अपनी भावज के मुख पर ओज देखने का यत्न करते हुए कह दिया।
उसकी माँ ने पूछा, ‘‘किस वास्ते?’’
‘‘अम्मी! मैं देखना चाहती हूँ कि भाभीजान कैसे और क्या ऊँचा पद पाती हैं?’’
‘‘मगर बम्बई में तुम्हारी कमी कैसे पूरी होगी?’’
‘‘अब्बाजान एक दिन कह रहे थे कि लड़कियाँ अपने कुनबे का जुज़ नहीं होतीं। वे किसी दूसरे के घर की रौनक बनने वाली होती हैं।’’
‘‘मगर वह घर तो तुम्हारे अब्बाजान बनायेंगे।’’
‘‘अम्मी! मैं वह घर नहीं बना रही। मैं तो बम्बई वाले घर की बात कर रही हूँ। तुमने कहा है न कि मेरे चले आने से वहाँ कमी हो जाएगी। मैंने कहा कि यह तो होनी ही है। मगर मेरे इल्म में इजाफा यहाँ रहने से होगा।’’
नगीना की माँ सालिहा ने बात बदल दी। उसने प्रज्ञा से पूछा, ‘‘और बहुरानी! तुम क्या रुतबा पाने की कोशिश कर रही हो और उसे पाने से तुम्हें क्या तरक्की होने वाली है?’’
‘‘अम्मी! उसकी डुग्गी नहीं पीटी जा सकती। जब वह रुतबा पा जाऊँगी तो आप सब खुद-ब-खुद जान जायेंगी।’’
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