उपन्यास >> नास्तिक नास्तिकगुरुदत्त
|
5 पाठकों को प्रिय 391 पाठक हैं |
खुद को आस्तिक समझने वाले कितने नास्तिक हैं यह इस उपन्यास में बड़े ही रोचक ढंग से दर्शाया गया है...
सरवर महादेवी से दिए कपड़े इत्यादि उठा भीतर अपने सोने के कमरे में रख पुनः वहाँ आकर बैठ गई थी। प्रज्ञा बता रही थी–‘‘मैं हिन्दुओं में ब्राह्मण समाज में उत्पन्न हुई हूँ। शुरू से ही हमारा समाज पढ़ने-लिखने में दिलचस्पी लेता रहा है। इस समाज में नालायक से नालायक भी पैदा होते रहते हैं और आज जब सब समाजों में आबादी बहुत बढ़ गई है, ब्राह्मणों की तादाद में भी बेहद इजाफा हुआ है और इसमें भी सब किस्म के अच्छे-बुरे लोग पैदा हुए हैं और हो रहे हैं। इस पर भी जो कुछ समझदार हैं और अपनी जाति के गुणों को पहचानते हैं, वे अपनी मजहबी किताबों को पढ़ कर विद्वान् बन जाते हैं।
‘‘हमारे खानदान में यह रिवाज रहा है कि हम रोटी कमाने के लिए दूसरों की खिदमत करते हैं, मगर अपनी जात-बिरादरी के औसाफ रखने के लिए अपने शास्त्र पढ़ते रहते हैं। हमारी धर्म पुस्तकें एक खास जुबान में हैं। मैंने कुछ पढ़ी हैं। कालिज की पढ़ाई भी उसी जुबान में की है। अब तो मैं खुद ही अपने पुस्तकें पढ़कर उनके मायने समझने लगी हूँ।’’
जब प्रज्ञा यह बता रही थी, नगीना उमाशंकर के पास से उठ उसके पास आ बैठी।
नगीना की माँ सालिहा ने पूछ लिया, ‘‘क्या हुआ है? क्या किसी ने चुटकी काटी है जो लाल हो यहाँ भाग आई हो?’’
‘‘हाँ,’’ नगीना ने उत्तर दिया, ‘‘वह कुछ कह रहे हैं, जिस वजह से मैं वहाँ से चली आई हूँ।’’
अब प्रज्ञा ने ही पूछना आरम्भ कर दिया, ‘‘क्या कह रहे हैं?’’
नगीना झिझकी और फिर आँखें झुका बोली, ‘‘वह कहते हैं कि मेरे मुख पर खुदाई नूर दिखाई देता है जिससे मैं सब बच्चों से ज्यादा खूबसूरत हूँ।’’
‘‘तो यह चुटकी काटना समझी हो?’’
|