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उपन्यास >> नास्तिक

नास्तिक

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :433
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 7596
आईएसबीएन :9781613011027

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खुद को आस्तिक समझने वाले कितने नास्तिक हैं यह इस उपन्यास में बड़े ही रोचक ढंग से दर्शाया गया है...


इस पर सरवर ने एक सूचना अपनी सौतनों की दे दी। उसने कहा, ‘‘यह कह रही है कि यह सात-आठ महीने में माँ का रुतबा पानेवाली है।’’

‘‘और यह कोई बहुत बड़ा रुतबा है?’’ नगीना की सबसे छोटी अम्मी हमीदा ने पूछ लिया।

प्रज्ञा मुस्कराती हुई सबकी ओर देख रही थी। नगीना उत्तर की प्रतीक्षा में प्रज्ञा का मुख देखने लगी थी। एकाएक उसे कुछ ऐसा अनुभव हुआ कि प्रज्ञा का मुख किसी अलौकिक प्रकाश से प्रकाशित हो रहा है। इस कारण उसने पूछ लिया, ‘‘भाभीजान! आपको क्या हुआ है?’’

‘‘अम्मीजान के कहने से मेरे दिल में एक खास किस्म की खुशी, जिसे हम आनन्द कहते हैं, पैदा हो उठी है।’’

इस समय खानसामा आया और खाना तैयार होने की सूचना देने लगा। अब्दुल हमीद उठा और बोला, ‘‘चलिए! थोड़ा यह काम भी कर लें।’’

भोजन हुआ। सबके लिए मुर्ग-मुसल्लम, साग-भाजी और टोमाटो सॉस इत्यादि था। प्रज्ञा के माता-पिता तथा भाइयों के लिए चावल, सादी रोटी, उड़द और चने की दाल तथा सब्जी बनी थी।

उमाशंकर प्रज्ञा के एक ओर बैठा था और मुहम्मद यासीन उसके दूसरी ओर। प्रज्ञा तो वही खा रही थी जो उसका पति ले रहा था अर्थात् बिर्यानी इत्यादि। इस पर भी अब्दुल हमीद देख रहा था कि प्रज्ञा का भाई उमाशंकर हँस-हँस कर बातें कर रहा है। उसकी अगल-बगल बम्बई से आयी उसकी दोनों पत्नियाँ बैठी थीं। सरवर बच्चों के बीच में बैठी थी।

अब्दुल हमीद ने सालिहा से कहा, ‘‘बहू का भाई तो बहन को गोश्त खाता देख बुरा नहीं मान रहा मालूम होता।’’

‘‘वह अमरीका में रहकर आया है। वहाँ सब कुछ खाता-पीता रहा होगा।’’

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