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उपन्यास >> नास्तिक

नास्तिक

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :433
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 7596
आईएसबीएन :9781613011027

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खुद को आस्तिक समझने वाले कितने नास्तिक हैं यह इस उपन्यास में बड़े ही रोचक ढंग से दर्शाया गया है...


‘‘जो कुछ ये दोनों बड़े पहले थे, यह निपट नास्तिकता कही जा सकती थी। जब से पिताजी ने अपना विश्वास हनुमानजी पर से और अब्बाजान ने इस्लामी शरअ पर से उठाया है, मैं समझती हूँ कि ये परमात्मा के समीप जा रहे हैं।’’

‘‘उसका प्रत्यक्ष प्रमाण तो है। पिताजी अब अधिक मानवता के अनुयायी समझे जाने लगे हैं और इस्लाम पर अन्धविश्वास रखनेवाले अपनी अक्ल का प्रयोग करने लगे हैं। यह भी मानवता ही है।’’

‘‘मैं समझती हूँ जो सब प्रकार के पूर्वाग्रहों का त्याग कर, बुद्धि का प्रयोग करता हो, वह ही ईश्वर-भक्त होता है। यही परमात्मा हम से आशा करता है।’’

‘‘बुद्धियाँ भिन्न-भिन्न होती हैं। यदि परमात्मा बुद्धि का प्रयोग अपनी भक्ति मानता है तो सब की बुद्धियाँ एक समान क्यों नहीं होतीं?’’ महादेवी ने पूछा।

‘‘माताजी! बुद्धियाँ तो एक समान ही हैं। मगर शिक्षा से और अपने पूर्वजन्मों के कर्मों के फल से बुद्धियों पर भिन्न-भिन्न रंग चढ़ा हुआ है।’’

‘‘जब ईश्वर कृपा होती है तो यह रंग उतरने लगता है। इस पर समानता दिखाई देने लगती है।’’

‘‘समानता इस बात में प्रकट होती है कि हम न्याय-दृष्टि, सत्य-ज्ञान का आभास पाने लगते हैं।’’

‘‘यही बात मेरे श्वसुर में और पिताजी में होती मैं देखती हूँ। जब तक ये उसे मानते रहे, जिसे ये परमात्मा समझते थे, तब तक ये न तो मेरे मानव अधिकारों को स्वीकार करते थे और न ही कमला के। अब इनको यह भास होने लगा है कि मेरा अधिकार था कि मैं विवाह अपनी रुचि अनुसार करूँ और कमला के विषय में उसके अब्बाजान को भी कुछ ऐसी ही भास हुआ प्रतीत होता है।’’

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