उपन्यास >> नास्तिक नास्तिकगुरुदत्त
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खुद को आस्तिक समझने वाले कितने नास्तिक हैं यह इस उपन्यास में बड़े ही रोचक ढंग से दर्शाया गया है...
‘‘यदि कुछ गुप्त न हो तो बता दीजिए। कदाचित् मैं भी उस प्रस्ताव में योगदान दे सकूँ।’’
रविशंकर ने अरुणांचल लौज पर हुई घटना वर्णन कर दी और फिर अपना प्रस्ताव भी सुना दिया। उसने बताय, ‘‘मेरे एक मित्र हैं। उनकी लड़की इस समय अट्ठारह वर्ष की हो चुकी है। वह मित्र कई बार उसके लिए किसी लड़के के विषय में पूछ चुका है। शिव कहे तो उस लड़की को चाय पर सायंकाल निमन्त्रण दे दूँ।’’
‘‘देखो शिव भैया!’’ ज्ञानस्वरूप ने कहा, ‘‘दिल्ली में भले और सुन्दर लड़कों को बीसियों लड़कियाँ मिल जायेंगी। यहाँ की कोई भी ईंट उठाओ तो नीचे एक-दो सुन्दर लड़कियाँ दिखाई दे जायेंगे।’’
‘‘इसमें उन्नीस-बीस का अन्तर ही हो सकता है और मैं समझता हूँ यदि तुम कहो तो इसी रविवार को विवाह रचाया जा सकता है।’’
‘‘तो आप भी कमला के योग्य मुझे नहीं समझते?’’
‘‘मैं ऐसा समझनेवाला कौन हूँ? मैं तो दुकान पर सुन्दर क्राकरी बेचनेवाला हूँ। यदि एक डिन्नर सेट पसन्द नहीं तो दूसरा दिखा सकता हूँ।’’
रविशंकर और शिवशंकर दोनों हँस पड़े। उत्तर पिता ने दिया, ‘‘मैं अभी घर जा रहा हूँ और आशा करता हूं कि इसकी माँ घर आ गई होगी। मैं उसे कहूँगा कि उस मित्र की लड़की को देखने और शिव को दिखाने प्रबन्ध करे।’’
रविशंकर की योजना सफल हुई। उसी रात लड़की-लड़के की देखा-देखी हो गयी और रविवार को विवाह की घोषणा कर दी गई।
अगले दिन सायंकाल जब लड़की के सम्बन्धी शकुन देने आये तो प्रज्ञा, सरस्वती, कमला और ज्ञानस्वरूप भी वहाँ थे और शिव की ससुराल से मिली मिठाई, वस्त्र और रुपयों में से उनको भी उचित भाग मिला।
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