उपन्यास >> नास्तिक नास्तिकगुरुदत्त
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खुद को आस्तिक समझने वाले कितने नास्तिक हैं यह इस उपन्यास में बड़े ही रोचक ढंग से दर्शाया गया है...
‘‘परन्तु पिताजी! मुकाबले में रखनेवाली कोई वस्तु भी तो होनी चाहिए।’’
रविशंकर ने मुस्कराते हुए कहा, ‘‘तुम्हारी माँ कहा करती है कि परमात्मा की कला-कुशलता मनुष्य बनाने के उपरान्त समाप्त हो गयी है। मनुष्य को बने, यूरोपियन वैज्ञानिकों के कथनानुसार, बीस बजार वर्ष हो चुके हैं और भारतीय विद्वानों के अनुसार तीस-चालीस लाख वर्ष हो चुके हैं। इतने लम्बे अर्से से भी मनुष्य से श्रेष्ठ प्राणी परमात्मा के शिल्पगार में नहीं बना। इससे मैं कहता हूँ कि तुम्हारी पत्नी भी मनुष्य जाति की होगी।
‘‘एक बात और याद रखो। सब मनुष्य एक समान नहीं होते। कोई रंग-रूप में अच्छा है तो कोई दूसरा गुणों में हो सकता है। प्रत्येक में अपने-अपने गुण रहते हैं। यह पुरुष की योग्यता पर निर्भर करता है कि वह अपनी पत्नी के गुणों को उभरने का अवसर दे। उन गुणों में वह दूसरों से श्रेष्ठ हो सकती है।’’
शिवशंकर को यह विचार उचित प्रतीत हुआ। उसने कहा, ‘‘तो पिताजी! करिए यत्न! इस पर भी विवाह का निश्चय करने के पहले मैं देखूँगा कि कहीं घर में हँसी का लक्ष्य न बन जाऊँ।’’
‘‘मैं समझता हूँ कि यह एक सप्ताह में ही हो जायेगा और तुम अपने विवाह का निमन्त्रण अपनी बन रही कुँवारी माता को भी दे सकोगे।’’
इस पर दोनों हँसने लगे। जब वे हँस रहे थे, उसी समय ज्ञानस्वरूप वहाँ आ पहुँचा। वह पिता-पुत्र को हँसते देख सन्तोष अनुभव करने लगा था।
उसने कहा, ‘‘अम्मी का घर से टेलीफोन आया था कि शिव भैया वहाँ से रूठकर भाग आया है। मैं उसे मनाने आया हूँ, परन्तु आप दोनों को हँसता देख समझता हूँ कि अम्मी को कुछ भ्रम हो गया है।’’
‘‘हाँ!’’ उत्तर रविशंकर ने दिया, ‘‘मैं इसके साथ यहाँ एक प्रस्ताव पर विचार करने आया था। वह प्रस्ताव मैंने कर दिया है और इसने स्वीकार कर लिया है।’’
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