उपन्यास >> नास्तिक नास्तिकगुरुदत्त
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खुद को आस्तिक समझने वाले कितने नास्तिक हैं यह इस उपन्यास में बड़े ही रोचक ढंग से दर्शाया गया है...
आधा घण्टा से ऊपर लगा इनको अपनी दुकान के पासवाले स्टैण्ड पर पहुँचने में। दोनों बस से उतरे और पैदल ही दुकान को चल पड़े।
दुकान के कर्मचारी रामरत्न ने दुकान खोल रखी थी और चपरासी अलमारियाँ झाड़ रहा था। अंग्रेज़ी, हिन्दी, उर्दू तीनों भाषाओं की पुस्तकों की बिक्री का प्रबन्ध हो रहा था। इक्का-दुक्का ग्रहक भी आ रहे थे।
जब पिता-पुत्र दुकान पर बैठे तो शिवशंकर ने चपरासी से पानी लाने के लिए कहा।
चपरासी दो गिलासों में जल ले आया। दोनों न जल पिया तो पिता ने कहा, ‘‘लड़कियों का अपहरण करना भले आदमियों का चलन नहीं है।’’
‘‘पिताजी! वह तो क्रोधवश मुख से निकल गया था। उस क्रोध को तो कमला ने एक ही वाक्य में शान्त कर दिया था। वास्तव में पहले भी इस स्थित का अनुमान मैं लगाया करता था। मैं शिक्षा में दादा से कम हूँ, सूरत-शक्ल में भी उससे उन्नीस ही हूँ। इस पर भी कमला ने मुझे निरुत्साहित कभी नहीं किया। इस कारण मैं समझा करता था कि कुछ मुझमें है, जिस कारण वह मुझे अपने मन की पेंडिंग फाइल में रखे हुए है।’’
‘‘पिताजी! यह तो एकाएक की जानेवाली घोषणा पर मेरी प्रतिक्रिया थी। उसने आज बात ऐसे ढंग से की कि मुझे अनुभव हुआ कि सबके सामने लज्जित किया गया हूँ।’’
‘‘एक क्षण के लिए मेरे मन में यह भी विचार आया था कि उसके मुख पर अपने पूर्ण बल से चपत लगा दूँ, परन्तु जब दादा उसे पत्नी पद देने के लिए तैयार हैं तो मैं उसे ऐसा मानने से कैसे इन्कार कर सकता हूँ? अतएव मैं वहाँ से चला आया हूँ।’’
रविशंकर ने कहा, ‘‘देखो शिव! उसके मुख पर चपत लगाने का अवसर अभी भी है। वह इस तरह की यदि तुम मानो तो मैं तुम्हारा विवाह उमा से पहले कर सकता हूँ। जब तक उसके पिता का नियन्त्रण उसके सिर से उठेगा और उसका विवाह होगा, तुम एक सुन्दर बालक के पिता भी हो सकते हो।’’
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