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उपन्यास >> नास्तिक

नास्तिक

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :433
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 7596
आईएसबीएन :9781613011027

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खुद को आस्तिक समझने वाले कितने नास्तिक हैं यह इस उपन्यास में बड़े ही रोचक ढंग से दर्शाया गया है...

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ज्ञानस्वरूप के घर से कमला का तीक्ष्ण व्यंग सुन शिव का मन झाग की भाँति बैठने गा तो वह वहाँ से चल दिया। रविशंकर को अपना कर्त्तव्य समझने में दो-तीन मिनट लगे। परन्तु ज्यों ही उसे समझ आया कि उसे लड़के से सहानुभूति प्रकट करनी चाहिए, वह भी उसके पीछे-पीछे चल पड़ा। कोठी के बाहर निकल वह विचार करने लगा कि वह कहाँ गया होगा।

यह विचार कर कि वह दुकान पर गया होगा, वह भी बस-स्टैण्ड की ओर चल पड़ा। उसका अनुमान ठीक था। शिव बस-स्टैण्ड पर बस की प्रतीक्षा में खड़ा था। दो-तीन व्यक्ति और वहाँ खड़े थे। वह भी उनमें जा खड़ा हुआ। शिव ने पिताजी से पूछा, ‘‘आप कहाँ जा रहे हैं?’’

रविशंकर ने उत्तर देने के स्थान आ रही बस की ओर संकेत कर दिया।

‘‘यह बस तो कश्मीरी गेट को जा रही है।’’

रविशंकर ने उत्तर नहीं दिया। उत्तर देने का अवसर भी नहीं था। बस से सवारियाँ उतर रही थीं और चढ़नेवाले चढ़ने लगे थे।

पिता-पुत्र दोनों साथ-साथ बैठे। बस चली तो पिता ने कहा, ‘‘इस नयी परिस्थिति पर विचार करने के लिए चला आया हूं।’’

‘‘मैं भी इसलिए चला आया हूँ। मेरे लिए वहाँ सब-कुछ नीरस दिखाई देने लगा था।’’

‘‘पर तुमने जो कुछ कहा, वह मैं उचित नहीं समझता। वह एक ब्राह्मण सन्तान के अनुरूप नहीं है।’’

शिव के मन में विचार आया था कि क्या वह ब्राह्मण सन्तान है? कम-से-कम वह ब्राह्मण नहीं है। वह तो एक कुशल वैश्य बनने का यत्न कर रहा था। इस पर भी उसने पिता की बात का उत्तर नहीं दिया। वह उस विषय पर बस में बैठे हुए एक शब्द भी कहना नहीं चाहता था।

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