उपन्यास >> नास्तिक नास्तिकगुरुदत्त
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खुद को आस्तिक समझने वाले कितने नास्तिक हैं यह इस उपन्यास में बड़े ही रोचक ढंग से दर्शाया गया है...
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ज्ञानस्वरूप की इस सूचना पर जो उसके अब्बाजान वैंगर में चाय लेते हुए दे गये थे, प्रज्ञा और उमाशंकर में बात हो गई।
उमाशंकर का कहना था, ‘‘मैं पूछता हूँ कि अगर अब्बाजान अपनी शैतानी हरकत में कामयाब हो गए तो क्या करोगी?’’
‘‘कुछ नहीं। चुपचाप पिताजी तथा माताजी की सेवा उनकी वृद्धावस्था में कर पेट भर लिया करूँगी। परन्तु दादा, मैं परमात्मा को इतना अन्यायी नहीं समझती कि वह मुझ-जैसी स्त्री को इस प्रकार का कष्ट दे।’’
‘‘मैं तो समझती हूँ कि मेरा पूर्वजन्म भी अतिश्रेष्ठ था। तभी तो मुझे देवतास्वरूप माता-पिता मिले हैं; हीरे के समान स्वच्छ और उज्ज्वल दोनों भाई मिले हैं; पति भी इतना अच्छा मिला है कि वह कीचड़ में कमल ही कहा जा सकता है। यह सब मेरे पूर्व जन्म के पुण्य कर्मों का ही फल है।’’
‘‘और इस जन्म में मैंने अपनी जानकारी में कोई पाप नहीं किया तो फिर मुझे यह सब यंत्रणा किसलिए सहन करनी पड़ेगी?’
‘‘तुम ठीक कहती हो, परन्तु परमात्मा ने मुझे और तुम्हें बुद्धि तो दी है। यह इसलिए दी है कि हम अपनी सुरक्षा का प्रबन्ध कर लें। मैं आज से ही अपना यत्न आरम्भ करता हूँ।’’
‘‘और कमला ने परसों से ही यत्न आरम्भ कर दिया है।’’
‘‘वह क्या यत्न कर रही है?’’
‘‘वह कहती थी कि उसे ‘टेनिसन’ के इस वाक्य पर अगाध विश्वास है कि प्रभु-प्रार्थना में वह शक्ति है, जो संसार में किसी भी अन्य में नहीं हो सकती और वह अब दैनिक नित्य कर्मों से बचा सब समय प्रभु-चिंतन और अपने गुरुमंत्र के सिमरण में व्यय करती रहती है।’’
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