उपन्यास >> नास्तिक नास्तिकगुरुदत्त
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खुद को आस्तिक समझने वाले कितने नास्तिक हैं यह इस उपन्यास में बड़े ही रोचक ढंग से दर्शाया गया है...
ज्ञानस्वरूप ने उसी समय घर पर प्रज्ञा को टेलीफोन कर दिया और बताया कि तुम्हारे दादा दुकान पर आये हैं और सुखकारक समाचार सुना गए हैं।
अगले दिन ज्ञानस्वरूप को इम्पीरियल होटल से अब्दुल हमीद का टेलीफोन आया। ज्ञानस्वरूप ने आवाज पहचान आदाब अर्ज कर दी।
इसके उत्तर में बाप ने कहा, ‘‘मैं तुमसे पाँच मिनट में मिलने के लिए आना चाहता हूँ।’’
‘‘जहे किस्मत! आइए, मैं दुकान पर हूँ।’’
‘‘बस, यही जानने के लिए टेलीफोन किया था। अब मैं पाँच मिनट में पहुँच रहा हूँ।’’
‘‘आइए! मेरे पड़ोस में ‘वेंगर रैस्टोराँ’ है, वहीं पर चाय लेते हुए बात करेंगे।’’
ज्ञानस्वरूप को बहुत प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ी। अब्दुल हमीद आया और ज्ञानस्वरूप उसे लेकर रैस्टोरां में चला गया। एक कोने में बैठ बैयरा को चाय का आर्डर दिया जा चुका तो अब्दुल हमीद ने कहा, ‘‘इस बार भी तुम मुझ पर बाजी ले गए हो।’’
‘‘सच? किस बात में ले गया हूँ?’’
‘‘मैंने तुम्हें कम-से-कम दो साल के लिए जेल में डाल रखने का बन्दोबस्त किया था, मगर तुम मुझसे जबरदस्त साबित हुए हो।’’
‘‘अब्बाजान! मैं कुछ नहीं समझा। मैं तो परसों रात से ही अपने पकड़े जाने की उम्मीद कर रहा हूँ।’’
‘‘नहीं! यह फैसला हुआ है कि अगर वे लोग इन चुनावों में मुकम्मल अक्सरीयत पा गए, जिनके हम मोदी हैं तो फिर हमारी बात सुनी जा सकेगी। इसलिए बिल्ली ने अभी चूहे को थोड़ा उछल-कूद मचाने के लिए तीन-चार महीने छुट्टी दे दी है। मगर ये चूहे कब तक अपनी खैर मनायेंगे? इनके लिए कयामत की घण्टी बज चुकी है।’’
‘‘अब्बाजान! इससे आपको खुशी हासिल हो रही है।’’
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