उपन्यास >> नास्तिक नास्तिकगुरुदत्त
|
391 पाठक हैं |
खुद को आस्तिक समझने वाले कितने नास्तिक हैं यह इस उपन्यास में बड़े ही रोचक ढंग से दर्शाया गया है...
कोटि-कोटि जन गावत गुण तेरे,
है पावत परम पद उनके हरे फेरे,
महिमा तव दर्शन की।
मोहे लागी लगन हरिचरणन की।।
एक-एक पद में वह स्वर विस्तार करती और फिर वीणा बजाती। इस प्रकार एक घण्टा-भर यह कार्यक्रम चला।
जब उसने बन्द किया तो ज्ञानस्वरूप को यह देख विस्मय हुआ कि एक घण्टा पाँच मिनट हो चुके हैं। यह समय कैसे व्यतीत हुआ, पता ही नहीं चला था। उसने कहा, ‘‘छः बज गए हैं।’’
‘‘यह तो होना ही था। यह भक्ति का रसमय ढंग है। यह प्रज्ञा के ज्ञानयुक्त कथन से अधिक आकर्षक है?’’
‘‘जी! परन्तु अम्मी! इसका यथार्थ फल तो उस ज्ञान चर्चा के उपरान्त ही हो सकता है जो इतने दिन तक हम करते रहे हैं। वही कथन अत्यन्त मधुर स्वरों में किया गया है। इनके अर्थ भी वही हैं जिनको समझने का हम पिछले दस-ग्यारह महीने से यत्न कर रहे हैं। उन्हें समझे बिना ये गौण अर्थ ही रहते हैं।’’
‘‘अब हरि शब्द का अर्थ हम जानते हैं। तभी तो उसके चरणन के अर्थ समझ में आये हैं। अन्यथा महात्मा बुद्ध के पत्थर के बने चरणों में ध्यान चला जाता और परमात्मा का आकार-विकार समझ में आने लगता। हरि की यह मिथ्या कल्पना से लाभ के स्थान हानि हो जाती।’’
प्रज्ञा ने ज्ञान की महिमा तथा गुण का वर्णन कर दिया। उसने बताया, ‘‘चरण दस उंगलियोंवाले पग नहीं जिन पर कोई मनुष्य भूमि पर खड़ा होता है अथवा चलता है वरन् इसका अर्थ आधार है, जिससे परमात्मा इस जगत् में व्यापक हो सबका संचालन करता है।’’
‘‘बस! इसी में ज्ञान की महिमा है। परमात्मा का यथार्थ ज्ञान अर्थात् उसके ऋतों का ज्ञान ही मन को प्रेरणा देता है।’’
सरस्वती ने कह दिया, ‘‘ठीक है। ज्ञान से कहो अथवा इसके मधुर स्वर से कहो, चित्त को इससे शान्ति मिली है।’’
|